मेरी बात – आज के बच्चों में संस्कार का होता आभाव, लेखक सह पत्रकार अरुण कुमार
मेरी बात – आज के कलयुगी बच्चों में संस्कार का होता आभाव एक शोध – लेखक सह पत्रकार अरुण कुमार — आज का यह टॉपिक बहुत कुछ कहने व जानने के लिए काफी हैँ कि आज के इस कलयुगरूपी संसार में बच्चों में संस्कार का ना होना काफी कुछ कहने को बेताब हैँ और वो हो भी क्यों ना क्योंकि कमी हमसब के अंदर ही हैँ एक संस्कृत का श्लोक हैँ कि # लालयेत पंचवर्षानी दस वर्षानी ताड़एत प्रापते तू सोडसे बर्शे मित्रचित वदा चरेत # यह श्लोक आज के अभिभावक भूल गए हैँ या उन्हें याद ही नहीं हैँ इसका शाब्दिक अर्थ मैं बताता हूँ कि जब आपके बच्चे पाँच वर्ष की आयु में कदम रख रहे हो तो उन्हें खूब दुलार व प्यार करें और जैसे ही वे दस वर्ष की आयु को छुए तो उन्हें डांट फटकार लगाए जो की अतिआवश्यक हैँ और ज्योंही वे सोलह वर्ष की अवस्था में हो तो उनके साथ मित्र जैसा व्यवहार करें तब जाकर आपके बच्चे संस्कार को प्राप्त कर पाएंगे ऐसा मेरा मानना हैँ वहीँ आप इसको एक कुम्हार चाक चलाने वाले से भी समझ सकते हैँ क्योंकि जब वो कोई घड़ा बनाता हैँ तो पहले मिट्टी को काफी मुलायम कर लेता हैँ तत्पश्चात गीली मिट्टी जब एक घड़ा का रूप लेने लगती हैं तब उसे कई बार पीटा जाता हैँ और तब तक उस घड़े के साथ पिटाई की जाती हैँ जबतक की उसका आकार उस कुम्हार के हिसाब से सही नहीं हो जाता हैँ फिर बारी आती हैँ उसके पकने की और जब वो घड़ा अच्छी तरह पक जाता हैँ तो जैसे कुम्हार के द्वारा प्यार से उसे रक्खा जाता हैँ अब वो कुम्हार चाह कर भी उस घड़े को पीट नहीं सकता हैँ ठीक उसी तरह आज के इस कलयुग में भी बच्चों को भी उनके अभिभावक ऐसे ही अगर ट्रीट करें तो मुझे लगता हैँ कि जो संस्कार आज के बच्चों में एक विलुप्त की भांति होता जा रहा हैँ कमोवेश वैसी हालात से आनेवाली पीढ़ी शायद बच जाए किन्तु ये तो अभिभावकों को ही करना होगा अन्यथा आज की पीढ़ी ही कल का होने वाला भावी भविष्य हैँ अगर अभी हमसब नहीं चेते तो आज के बच्चों के किया कहने ना पगड़ी बचेगी और ना लाज अगर समस्या हैँ तो निदान भी हैँ कैसे होगा यह फैसला अब आपको करना हैँ कि बच्चों में संस्कार की अलख जगानी हैँ या संस्कारविहीन करके इस कलयुगी समाज में छोड़ देना हैँ अब मर्जी हैँ आपकी क्योंकि अभिभावक हैँ आप ✍️✍️,
सबों का आभार,
अरुण कुमार, मंडे मॉर्निंग न्यूज़ नेटवर्क, ( भागवत ग्रुप कारपोरेशन )
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