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अंतर्राष्ट्रीय पर्वत दिवस 11 दिसंबर पर विशेष

प्रतिवर्ष भारत सहित विश्व भर में 11 दिसंबर को अंतर्राष्ट्रीय पर्वत दिवस मनाया जाता है। इस दिवस को मनाने का मुख्य उद्देश्य अंतर्राष्ट्रीय समुदाय को पर्वतीय क्षेत्र के सतत विकास के महत्त्व पर प्रकाश डालना और पर्वतीय क्षेत्र के प्रति दायित्वों के लिए जागरूक करना है। दुनिया में पर्वतों का बहुत महत्त्व है,इसीलिए बहुत जरूरी है कि पर्वतीय क्षेत्रों का विशेष ध्यान रखा जाए। इसीलिए संयुक्त राष्ट्र महासभा ने 2002 को संयुक्त राष्ट्र अंतर्राष्ट्रीय पर्वत वर्ष घोषित किया था, और 2003 के 11 दिसंबर से अंतर्राष्ट्रीय पर्वत दिवस मनाने का संकल्प लिया। हर साल विश्व के बहुत सारे लोग पर्वतों के संरक्षण के लिए आगे आते हैं। इसी संदर्भ में झारखंड के साहिबगंज महाविद्यालय में भू-विज्ञान विभाग के एसिस्टेंट प्रोफेसर, मशहूर पर्यावरण विद डॉ. रणजीत कुमार सिंह ने साहिबगंज मंडे मॉर्निंग डेस्क न्यूज के करेस्पॉन्डेंस संजय कुमार धीरज से अपने विचार साझा करते हुए संताल परगना में पहाड़ों व यहाँ पाये जाने वाले जीवाश्मों पर मंडरा रहे संकट पर गहरा दुःख प्रकट किया है। भू-वैज्ञानिक डॉ. सिंह ने कहा है कि भारत के झारखंड प्रांत में कभी संथाल परगना नाम का बड़ा भू -भाग हुआ करता था, जो अब सिर्फ छह जिलों गोड्डा, दुमका, देवघर, साहेबगंज, जामताड़ा एवं पाकुड़ में बदल चुका है। यहाँ पहाड़ियों की श्रृंखला पायी जाती हैं जो कि विज्ञान के क्षेत्र में राजमहल के नाम से विख्यात हैं। ये पहाड़ियाँ हिमालय की तरह हिमाच्छादित नहीं हैं वरन् हरे-भरे पौधों से वृक्षादित है। इन पहाड़ियों की अनेक विशेषताएं हैं। यहाँ ‘‘पहाड़ियाँ‘‘ नामक आदिवासी निवास करते हैं।

इन्हीं पहाड़ियों में 11.7 -11.0 करोड़ वर्ष पूर्व फटे ज्वालामुखी के लावा समाये हुए हैं। ज्वालामुखी लावा की परतों के बीच कुछ अवसादी चट्टानें पायी जाती हैं। इन्हीं अंतट्रेंपियन चट्टानों में आदिकाल से भी पूर्व ( लगभग 12.0 -11.0 करोड़ वर्ष ) की वनस्पति के अवशेष जीवाश्म के रूप में मिलते हैं। इन पेड़ -पौघों के चिन्ह, जीवाश्मों की छाप, संपीडाश्म एवं अश्मन के रूप में मिलते हैं। ओल्ड्हम एवं मौरिस और फाइस्मॉन्टल ने इन जीवाश्मों का अध्ययन 1863, 1877 में शुरू किया था।
उन्नीसवीं सदी में राजमहल की अनेक पहाड़ियाँ जैसे निपानिया, मंडरो, अमरजोला, सकरीगली घाट, मुरली पहाड़, तीन पहाड़, आदि क्षेत्रों में पाये जाने वाले अवशेषों की खोज एवं विस्तृत जानकारी शोध पत्रों में प्रकाशित हुई है, जिनका अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर वनस्पति व भू -विज्ञान में गहरा महत्त्व है। अनेक भारतीय एवं विदेशी वैज्ञानिकों ने इन पहाड़ियों को देखा है व इनकी धरोहर का अध्ययन भी किया है।

वर्तमान में भी भू-वैज्ञानिक, वनस्पति तथा भू-विज्ञान से संबंधित खोज से सतत प्रयत्नशील ही नहीं वरन् पूरी लगन व तनमयता से अघ्ययन में जुटे हुए हैं।


वस्तुतः आज इन पहाड़ियों की स्थिति बदल रही है। विकास के चलते कुछ बदलाव आना संभव है। इन पहाड़ियों से ऊंची इमारतें व पुख्ता सड़क बनाने के लिए ज्वालामुखी से निकले लावा का खनन किया जा रहा है। इन पहाड़ियों को काट कर सपाट किया जा रहा है, जिससे इनका प्राकृतिक सौन्दर्य तो नष्ट हो ही रहा है, वातावरण पर भी गहरा असर पड़ रहा है, एवं पुरावनस्पतिविज्ञान से संबंधित जानकारी भी नष्ट हो रही है। यदि यही हाल रहा तो भविष्य में इनके विलुप्त होने की पूरी संभावना है। अमरजोला पहाड़ी से वनस्पति के जीवाश्म तथा कुछ फॉसिल मोलस्क भी प्रकाशित हो चुके हैं। आज वहाँ की पहाड़ी को काटकर समतल बना कर उस पर ऊंची इमारतें खड़ी हो रही है। उस पहाड़ी के समतल भाग पर मौजूद वर्तमान काल के 2-4 बड़े -बड़े पेड़ जरूर दिखाई देते हैं। अब न तो पहाड़ी, न जीवाश्म, न ज्वालामुखी के लावा की परतें ही दिखाई देती हैं,यानि अब सब कुछ विलुप्त हो चुका है। गौरतलब है कि मानव संसाधन के लिये विकास तो आवश्यक है, पर ऐसा न हो कि भविष्य में प्राकृतिक धरोहर का शनैःशनैः हनन होता रहे, और राजमहल की पहाड़ियों को देखने के लिए उसे ढूंढते -ढूढते थक जायें। अतः आवश्यकता है कुछ स्थानों को संजोने,संवारने की, जिन्हें राष्ट्रीय स्मारक बना कर सुरक्षित रखा जा सकता है।

साहिबगंज महाविद्यालय के एसिस्टेंट प्रोफेसर,पर्यावरण विद,भू -वैज्ञानिक डॉ. रणजीत कुमार सिंह से संजय कुमार धीरज की बात -चीत पर आधारित लेख

Last updated: दिसम्बर 11th, 2020 by Sanjay Kumar Dheeraj
Sanjay Kumar Dheeraj
Correspondent, Sahibganj (Jharkhand)
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