शाहदत, बलिदान और साहस का अनूठा हकीकत है “मुहर्रम”
!! जुल्म सहकर भी ना झुका और शहीद हो गया !!
!! अजीज था रसूल का, खुदा का अजीज हो गया !!
क्या है मुहर्रम
आसनसोल -मुहर्रम महिना का नाम है और हिजरी केलेंडर के अनुसार इस्लामिक महीने का यह पहला महिना होता है. इस वर्ष यह महिना 11 सितम्बर से शुरू हुआ है. मुस्लिम समुदायों में रमजान के बाद यह दूसरा सबसे पवित्र महिना माना जाता है. इस महीने की महानता यह है कि इस्लाम को बचाने के लिए पैगम्बर हज़रत मुहम्मद साहब के प्यारे नवासे ने शहादत दी थी. तभी से इस्लाम को मानने वाले मुस्लिम समुदाय के लोग इस महीने की शुरूआत से दसवें दिन तक शोक मनाते है, साथ ही इमाम हुसैन द्वारा जुल्म और तकलीफ सहते हुए शहादत देकर इस्लाम को ज़िंदा रखने पर गौरवंतित होते है.
मुहर्रम क्यों मनाते
ये इस्लाम को कायम रखने के लिए एक परिवार की शहादत और एक मगरूर बादशाह की कुरुरता को दर्शता एक दर्दनाक हकीकत है. बात हिजरी संवत 60 की है. तब अरब में यजीद नाम का एक कुरुर बादशाह था. जिसके सिर पर खुदा होने का गुमान सवार हो गया था, और इसी गुमान के समन्दर में गोते लगाता वह बादशाह पूरे अरब पर अपनी हुकूमत कायम करना चाहता था. वो चाहता था कि वहाँ के लोग उसे खुदा माने और उसकी इबादत करे. जो उसकी बात नहीं मानता उसकी क़त्ल करवा देता. उसी दौर में पैंगम्बर हज़रत मोहम्मद के नवासे हजरत हसन और हुसैन थे. उन्होंने अपने समर्थकों और परिवार के साथ यजीद को खुदा मानने से इंकार कर दिया और एक खुदा,
एक रसूल और एक इस्लाम का पैगाम देने लगे. ये बातें उस मगरूर बादशाह याजिद को बर्दाश्त नहीं हुई और वे उन सभी को झुकाने की चेष्टा में लग गया. लेकिन वे नहीं झुके. एक दिन धोखे से जहर देकर हजरत हसन को शहीद कर दिया, और उनके परिवार व साथियों पर जुल्म ढहाने लगे. इमाम हुसैन अपने साथियों और परिवार को सुरक्षित स्थान पर ले जाने के लिए मदीना से ईराक की ओर रवाना हो गए. ये बात याजिद को मालूम चल गई और वे अपने सैनिको के साथ उनके काफिले पर कर्बला नामक शहर में हमला कर दिया. कर्बला को उस समय सीरिया बोला जाता था. वह पूरा रेगिस्तानी क्षेत्र था. जहाँ पीने की पानी के लिए सिर्फ एक तालाब था.
याजिद ने उस तालाब पर अपने सैनिको का पहरा लगँवा दिया. बाहरी सहायता भी इमाम के काफिले तक नहीं पहुँच पा रही थी. ऐसे में काफिले के साथ आये बच्चे, बूढ़े, महिला सभी भूख और प्यास से तड़पने लगे. क्योंकि याजिद ने कहलवाया था कि अभी भी वक्त है उसे खुदा मान लो तो सभी की जाने बक्श दी जाएगी. लेकिन इमाम हुसैन उनके परिवार और साथियों ने तकलीफ उठाना पसंद किया लेकिन याजिद की बातें नहीं मानी. तब याजिद ने जंग का इलान कर दिया और मुहर्रम महीने के 2 तारीख से 6 तारीख तक यह लड़ाई चली. इमाम हुसैन के साथ महिला बच्चे और बुजुर्ग मिलाकर 72 लोग थे, जबकि यजीद के आठ हजार सैनिक थे.
लेकिन फिर भी इमाम हुसैन नहीं झुके और उनके सैनिको के दांतों चने चबवा दिए. लेकिन वे जीत नहीं पाए और धीरे-धीरे उनके सभी लोग शहीद होते गए. मुहर्रम महीने के दशवें दिन अंत में इमाम हुसैन को नमाज अदा करते वक्त सजदे के दौरान याजिद ने उन्हें शहीद कर दिया. इस तरह से इमाम हुसैन जंग हारकर भी जीत गए और इस्लाम को कायम कर गए. आज उन्हीं के बलिदानों को स्मरण कर मुस्लिम समुदाय के लोग मातम मनाते है.
अखाड़ा और ताजिया
अखाड़ा और ताजिया को लेकर मुस्लिम समुदाय में ही काफी भ्रमक स्थिति है. इसलिय कुछ लोग इसे मानते है कुछ नहीं मानते है. दरअसल इतिहासकारों के अनुसार ताजिया और अखाड़े की शुरुआत तैमुर लंग नामक बादशाह के दौरा में हुई थी. और अपने बादशाह को खुश करने के लिए ही कुछ लोग ढोल-तासे के साथ ताजियादारी करने लगे. जिसे आज भी मुस्लिम समुदाय के कुछ लोग अनुसरण करते है. हालाँकि ताजिया और अखाड़े से इस्लाम धर्म का कोई नाता नहीं है और ना ही कुरआन और हदीस में इसका जिक्र आता है.
क्या करते है मुहर्रम में
मुहर्रम की पहली तारीख से दसवीं तारीख तक मुस्लिम समुदाय के लोग रोजा रखते है, हालाँकि ऐसा सभी नहीं करते कुछ लोग पहली व आखिरी रोजा रखते है. इन दिनों इमाम हुसैन की शहादत और इस्लाम मजहब को बचाने के लिए उठाये गए तकलीफों का स्मरण करते है. कुरआन की तिलावत और खुदा की इबादत करते और इमाम हुसैन उनके परिवार और साथियों के लिए दुआ की फरियाद करते है.
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