आजाद देश में कोई दलित क्यों ……………..?
26 जनवरी को पूरे देश ने 69 वां गणतन्त्र हर्षोल्लास के साथ मनाया । वर्तमान समय में भारत में जो जातीयता का जहर एक बार फिर हवाओं में घुलने लगा है एवं जाति को केंद्र कर देश के विभिन्न हिस्से में हिंसक घटनाएँ भी हो रही है ऐसे में आज वक्त है इन मौकों पर इस जहर को फैलाने वालों की पहचान करने का और यह सोचने का कि क्या हम वास्तविक रूप से आजाद हैं
आजादी के सत्तर साल से ऊपर हो गए । परतंत्र भारत में पैदा हुए लगभग लोग या तो मर चुके या मरणासन्न हैं । आजादी के पहले सामंतवादी व्यवस्था थी एवं उस व्यवस्था को उस वक्त की सत्ता का समर्थन भी रहता था ऐसे में ये बात समझ में आती है कि दलितों के घर दलित ही पैदा होते रहे होंगे और उसे दलित बोलते भी होंगे लेकिन आश्चर्य तो ये होता है कि स्वतंत्र भारत के किसी घर में भी पैदा होने वाले एक स्वतंत्र अस्तित्व को कोई दलित ही क्यों कहते रहना चाहता है? जन्म के आधार पर आजादी के इतने वर्षों बाद भी किसी को दलित की संज्ञा क्यों दी जाती है ? ऐसा कैसे हो सकता है और होता आ रहा है? आज भी उसे दलित कैसे कह सकते हैं ?
दलित शब्द किसी जाति के लिए नहीं है
दलित का मतलब पहले पीड़ित, शोषित, दबा हुआ, खिन्न, उदास, टुकड़ा, खंडित, तोड़ना, कुचलना, दला हुआ, पीसा हुआ, मसला हुआ, रौंदाहुआ, विनष्ट हुआ करता था, लेकिन अब अनुसूचित जाति को दलित बताया जाता है, अब दलित शब्द पूर्णतया जाति विशेष को बोला जाने लगा है जबकि इसका वास्तविक अर्थ भिन्न है। दलित कोई भी हो सकता है। यदि पत्नी अपने ससुराल में प्रताड़ित होती है तो वह भी दलित है । यदि किसी व्यक्ति से स्वतन्त्रता से जीने का हक छीना जाता है तो वह दलित है चाहे वो किसी भी जाति और धर्म का हो। दलित शब्द किसी जाति के लिए नहीं बल्कि एक अवस्था के लिए प्रयोग होता है परंतु आज परिस्थिति इसके उलट हो गयी है। अब यदि किसी जाति को दलित कहते हैं तो इसका अर्थ है कि पूरी जाति अभी भी शोषित है जबकि वास्तविकता ऐसी नहीं है। भारत के कुछ हिस्सों में कुछ जातियों के लोगों के उत्पीड़न की खबरें आती है लेकिन इस आधार पर पूरी जाति को ही शोषित नहीं कह सकते हैं । यदि हम अब ऐसा कहते हैं या ऐसा महसूस करते हैं तो फिर देश की आजादी का कोई मतलब ही नहीं है, हम कह सकते हैं कि देश अभी भी गुलाम ही है।
संविधान में सभी बराबर हैं कोई भी दलित नहीं
आखिर कौन है जो दलितों की संज्ञा को मिटाने नहीं देना चाहता है? इसमें किसका लाभ है ? क्या कोई पैदा होने के साथ अपने को दलित रखते हुए सहानुभूति ग्रहण करते रहने की इच्छा रखता है क्या ? क्या दलितों को दलित कहलवाने में अच्छा लगता है या कि फिर ये राजनीतिक दुकानदारी का विषय बना हुआ है ? शायद इसीलिए इस संज्ञा को मिटाने का कोई कोशिश नहीं हो रहा बल्कि इसके उलट इतने वर्षों में इसे संज्ञायित रखने के लाभ के कारण इसे बनाये रखा जा रहा है ? हमारा संविधान किसी को दलित बनाने का अधिकार तो देता नही फिर ये वंशानुगत संज्ञा क्यों ? क्या वंशानुगत संज्ञा एक स्वतंत्र पैदा हुए अस्तित्व को उसके जीवन के साथ अनचाहे सामाजिक अवहेलना के बीत चुके पहचान को जोड़कर उसके चारों तरफ एक ऐसी लकीर खींच देने का नाहक काम नहीं हो रहा है ? जिसके चलते उसकी मानसिकता पर परोक्ष-अपरोक्ष रूप में नकारात्मक प्रभाव पड़ता है जिसके जिम्मेदार आखिर कौन है ?
सामंतवाद का पर्याय बन गया है “दलित” शब्द
क्यों आजादी के बाद भी किसी को सिर्फ मनुष्य के रूप में पैदा नहीं होने दिया जा रहा है? जब हमारा संविधान जन्म के आधार पर अंतर नहीं किये जाने का प्रावधान किया हुआ है तो फिर भी किसी दलित के घर दलित ही क्यों पैदा हो रहा है या फिर दलित ही बोला जा रहा है ? पैदा होने वाले प्रत्येक को आखिर ब्रह्म ही क्यों नहीं मानते ? और अगर धर्मिक शब्द को प्राथमिकता संविधान नहीं देता है तो फिर मनुष्य के एकरूपता में ही क्यों नहीं मानते है । खैर दलित संज्ञा को बनाये रखने का कारण जो भी हो लेकिन ये लोकतंत्र में सामंतवाद को जिंदा रखा जाना ही है । और निश्चित तौर पर सिर्फ इसके लिए नेताओं को जिम्मेदार नहीं माना जा सकता । नताओं के लिए मुद्दे बनते है जिसके प्रति लोगों की रुझान होती है ।
जनता को होना पड़ेगा जागरूक
निश्चित तौर पर एक वर्ग है जो लोकतंत्र में सत्ता को प्रभावित करने का माद्दा रखता है और ऐसे अनेको बातों को मुद्दा के रूप में बनाये रखना चाहता एवं समय समय पर इसे भुनाते रहता है । तो फिर कैसी आजादी और कैसा लोकतंत्र ? ! यदि शासन और सत्ता किसी से इस प्रकार प्रभावित रहे कि लोगों को उसके वास्तविक आजादी को दिला न सके तो इसका मतलब अब तक हमारी आजादी पूर्ण नहीं है ! लोकतंत्र में सिर्फ जनता को ही समझना है कि हमारी अर्थात देश की दशा और दिशा कैसी होनी चाहिए और नहीं तो सभी आम कहे जाने वाले लोग ही दलित रहेंगे और ऐसे में अगर दमनकर्ता की पहचान करनी हो तो निश्चित तौर पर अब अंग्रेज तो है नहीं तो फिर शायद वो सभी राजनितिक दल ही दमनकर्ता माने जाने चाहिए जिसकी प्राथमिकताओं में हमसे मिलने वाला मत होता है हमारी आजादी या हमारा हक नही।
ललन प्रसाद सिंह (अधिवक्ता, आसनसोल कोर्ट, प0 बंगाल), आलोचक, विचारक एवं स्तम्भ लेखक
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