फुटपातों पर कड़ाके की ठंड में ठिठुरती जिंदगी, किसी तरह बुझा रहे हैं पेट की आग ,पर ठंड से बचने के लिए है अब भी है जलावन की व्यवस्था का इंतजार
आसनसोल। पश्चिम बंगाल का आसनसोल इलाका वो इलाका जिस इलाके को लोग शिल्पाँचल के नाम से जानते और पहचानते हैं। वो इस लिये के यह इलाका तरह-तरह के शिल्प यानि कि कई तरह की कल और कारखानों से भरा पड़ा है। शायद इसी वजह से इस इलाके को अब लोग ब्रदरहुड भी कहते हैं। यह शहर में हर धर्म के लोग वास करते हैं। और इन तमाम लोगों के बीच आपसी भाईचारगी भी काफी अच्छी है। यही कारण है कि हर धार्मिक त्यौहारों में सभी धर्म के लोग एक साथ काफी हर्षों उल्लास के साथ मनाते हुए दिखाई देते हैं पर इस शहर के फुटपातों की अगर हम बात करें तो इन फुटपातों पर भी कई जिंदगियाँ बस्ती हैं। साथ ही इन फुटपातों पर बसने वाली जिन्दागियों की सबसे बड़ी खासियत की अगर हम बात करें तो इनका भी ना तो कोई धर्म होता है, और ना ही कोई मजहब यह जिंदगियाँ सैकड़ों की संख्या में आसनसोल रेलवे स्टेशन से लेकर आसनसोल नगर निगम कार्यालय तक सड़क के किनारे इधर-उधर दूसरों के दया और मेहरबानीयों के भरोसे रहती हैं। एक तरफ जहाँ भागदौड़ की इस जिंदगी में शिल्पाँचल के लोग अपने-अपने कार्यों में व्यस्थ रहते हैं। दूसरी ओर यह लोग हर रोज सड़क के किनारे अपने-अपने चुनिन्दा स्थानों पर शिल्पाँचल के दानवीरों की राह तकते हैं। के कोई दानवीर आएगा और उनकी पेट में लगी आग को बुझाएगा 80 के दशक में एक सिनेमा में एक गाना काफी चर्चित हुआ था वह गाना था जिसका कोई नहीं उसका तो खुदा है।
यारों वह गाना भले ही किसी सिनेमा के गाने हों पर वह गाना इंसानों की निजी जिन्दागियों के साथ कुछ इस कदर मेल खाएगा यह किसी ने सोचा भी नहीं था शायद उसी खुदा की वजह बोलिये या फिर कुछ और भूखे-प्यासे सड़क के किनारे बसे इन लाचारों के पेट भरने के लिए हर रोज कहीं ना कही से उनके लिये कोई फरिस्ता बनकर जरूर आ जाता है। ऐसे में इन लोगों की किसी ना किसी तरह इनके पेट की आग बुझ तो जा रही है, पर ठंड और शीतलहर के इस मौसम में इनकी जिंदगी काफी कष्टदायक बन चुकी है। रात के अंधेरे में एक तरफ जहाँ आप और हम अपने-अपने घरों में गर्म कंबल और रजाई के अंदर दुबके रहते हैं।
दूसरी ओर खुले आसमान के नीचे ठिठुरन भरी इस ठंड में यह लाचार और बेबस लोग हर किसी आहट पर उठ कर बैठ जाते हैं। इनके कानो तक पहुँचने वाला हर एक आहट इनको उन फरिश्तों व दानवीरों की लगती है। जो इनको हर वर्ष ठंड के मौसम में गर्म कपड़े, चादर या फिर कंबल देकर जाते हैं। जिससे यह ठंड काफी आसानी से गुजार लेते हैं। पर इस वर्ष ठंड के इस मौसम में सड़क के इस बेबस और लाचारों की जिंदगी कैसे कटेगी इनके लिये अब यह एक बड़ा सवाल बन गया है। यह लोग कहते हैं। के इस बार ठंड में कोई भी बाबू इनको अपने घर का पुराना चादर, कंबल या फिर कोई गर्म कपड़ा तक देने नहीं आया नाही प्रशासन द्वारा इन्हें जलावन के लिये कोई लकड़ी ही दी गई जिसे जलाकर यह लोग ठंड की इस ठिठुरती रात को गुजार सकें।
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