विशेष आलेख : नक्सलवाद के जन्मस्थान पर ही उसका कोई नामलेवा नहीं बचा

(जहांगीर आलम)ः किसी दौर में सशस्त्र क्रांति का बिगुल बजा कर पूरी दुनिया का ध्यान अपनी ओर आकर्षित करने वाले नक्सलबाड़ी का चेहरा अब पूरी तरह बदल चूका है. बीते 25 मई 2017 को इस आंदोलन के 50 साल पूरे हो गए हंै यानी नक्सलबाड़ी गोल्डन जुबली एयर पूरा कर चूका है. मगर खेतिहर मजदूरों को उनका हक दिलाने के लिए जमींदारों और खेत मालिकों के खिलाफ शुरू हुआ यह संघर्ष बहुत कम समय में ही दम तोड़ गया था. उस दौर में राज्य पुलिस ने भी इस आंदोलन को दबाने के लिए काफी बर्बर रवैया अपनाया था. तब बंगाल में संयुक्त मोर्चा की सरकार थी. अब आंदोलन के स्वर्णजयंती वर्ष में इस अनाम-से कस्बे में कोई नक्सल शब्द का नामलेवा तक नहीं है. यह कहना ज्यादा सही होगा कि यहां बाड़ी तो है लेकिन नक्सल नहीं है. बांग्ला में मकान को बाड़ी कहा जाता है. पश्चिम बंगाल के दार्जिलिंग जिले में नेपाल की सीमा से लगा यह कस्बा अपने नक्सली अतीत और आधुनिकता के दौर के बीच फंसा हुआ है. नक्सलवाद शब्द इसी नक्सलबाड़ी की देन है, लेकिन साठ के दशक के आखिर में किसानों को उनका हक दिलाने के लिए यहां जिस नक्सल आंदोलन की शुरुआत हुई थी, अब यहां उसके निशान तक नहीं मिलते. राज्य सरकार की बेरुखी के कारण विकास अब भी यहां से कोसों दूर है. पचास बरस पहले जिन वजहों से नक्सल आंदोलन शुरू हुआ था, वे अभी भी मौजूद हैं, लेकिन अब कोई आवाज उठाने वाला नहीं बचा है. कोई सात साल पहले नक्सल नेता कानू सान्याल की मौत के बाद अब गरीबों और वंचितों के हक में कोई आवाज नहीं उठाता. बचे-खुचे नक्सली कई गुटों में बिखर गए हैं. अब तो सिर्फ नक्सल आंदोलन की बरसी पर शहीदों की वेदी पर माला चढ़ा कर ही वे इस आंदोलन की याद में आंसू बहा लेते हैं. कभी क्रांति के गीतों से गूंजने वाली इसकी गलियों में अब रीमिक्स गाने बजते हैं. स्थानीय युवकों ने तस्करी को अपना मुख्य पेशा बना लिया है. यहां आंदोलन के अवशेष के नाम पर नक्सल नेता चारू मजुमदार की इक्का-दुक्का प्रतिमा नजर आती हैं. मजुमदार की 1972 में संदिग्ध परिस्थिति में कोलकाता पुलिस हिरासत के दौरान मौत हो गई थी. सिलीगुड़ी में आंदोलन के शीर्ष नेता चारू मजुमदार का मकान जर्जर हालत में है. यह बूढ़ा मकान नक्सलियों की अनगिनत गोपनीय बैठकों का मूक गवाह रहा है. आंदोलन के दिनों के बचे-खुचे नेता अब मजुमदार के जन्मदिन पर उनकी प्रतिमा पर माला चढ़ाकर अपना कर्तव्य पूरा कर लेते हैं. अब नक्सलियों के कई गुट बन गए हैं. चारू मजुमदार के साथ नक्सल आंदोलन के जनक रहे कानू सान्याल कोई दो दशक पहले से ही नक्सली आंदोलन के भटकाव से बेहद दुखी थे. जीवन के आखिरी वर्षों में तो वे अपने बूढ़े व कमजोर कंधों के सहारे एक हारी हुई लड़ाई लड़ रहे थे. बावजूद इसके उन्होंने उम्मीद नहीं छोड़ी थी. अपनी बढ़ती उम्र और तमाम बीमारियों के बावजूद वे इलाके के लोगों में अलख जगाने में जुटे रहे. कभी वे सिंगुर में जमीन अधिग्रहण के खिलाफ होने वाले आंदोलन में शिरकत करते रहे तो कभी शोषित तबके के हक में नक्सलबाड़ी से कोलकाता तक दौड़ लगाते रहे. एक बार उन्होंने एक संवाददाता से कहा था कि “नक्सल आंदोलन अपने मूल उद्देश्यों से भटक कर आंतक की राह पर चल पड़ा था जो इसके नाकाम रहने की मुख्य वजह थी” कानू का जन्म 1932 में हुआ था. वे वर्ष 1969 में बनी सीपीआई (एमएल) के संस्थापकों में से थे. आखिर में वर्ष2010 में उन्होंने हताश होकर गले में फांसी का फंदा डाल कर आत्महत्या कर ली. कानू सान्याल ने अपने जीवन के 14 साल विभिन्न जेलों में गुजारे थे. अंतिम दिनों वे भाकपा माले के बतौर महासचिव के रूप में सक्रिय थे और नक्सलबाड़ी से लगे हुए हाथीघिसा गांव में रहते थे. मजुमदार, सान्याल और उनके जैसे नेताओं ने ही रातोंरात नक्सलबाड़ी को किसान आंदोलन का पर्याय बना दिया था. लेकिन मूल मकसद से भटकने की वजह से इसकी असमय ही मौत हो गई थी. अब नक्सल आंदोलन एक ऐसा अतीत बन चुका है जिसे कोई भूले-भटके भी याद नहीं करना चाहता है. रोजगार का कोई वैकल्पिक साधन नहीं होने से युवा पीढ़ी पहले पड़ोसी नेपाल से विदेशी सामान की तस्करी करते थे. अब रोजगार की तलाश में स्थानीय युवा देश के दूसरे राज्यों का रुख कर रहे हैं. बचे-खुचे लोग यहां छोटे-मोटे धंधे के सहारे जीवन गुजार रहे हैं. नक्सलबाड़ी अब भी वैसा ही है जैसा 50 साल पहले था. नक्सलवाद के जन्मस्थान पर ही उसका कोई नामलेवा नहीं बचा है. यह कस्बा अब आधुनिकता के चपेट में आ गया है. जो आंदोलन पूरी दुनिया के लिए एक आदर्श बन सकता था, वह इतिहास के पन्नों में महज एक हिंसक आंदोलन के तौर पर दर्ज हो कर रह गया है.
Last updated: सितम्बर 1st, 2017 by Pankaj Chandravancee
Pankaj Chandravancee
Chief Editor (Monday Morning)
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