खोखली राजनीति हो रही है हिदुस्तान केबल्स पुनर्वास के नाम पर

आर्थिक उदारीकरण का शिकार हुआ हिंदुस्तान केबल्स

हिंदुस्तान केबल्स लिमिटेड (एचसीएल ) की स्थापना वर्ष 1952 में तत्कालीन प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू द्वारा आसनसोल के रूपनारायणपुर में की गयी थी। दूरसंचार में प्रयुक्त होने वाले केबल्स में आत्मनिर्भर बनने के उद्देश्य से इस कंपनी की स्थापना की गयी थी । वर्ष 1994 तक यह कंपनी लाभ में चलती रही। वर्ष 1995 से यह कंपनी घाटे में चलने लगी ।  ये वो दौर था जब तत्कालीन प्रधानमंत्री नरसिम्हा राव एवं तत्कालीन वित्त मंत्री मनमोहन सिंह के नेतृत्व में देश में आर्थिक उदारीकरण लागू हो रहा था। आर्थिक उदारीकरण का मतलब होता है विदेशी  व्यापारियों के लिए देश के दरवाजे खोलना ।  विदेशी कंपनियाँ भारत में उन सामानों को सस्ते दामों में बेचने लगी जो भारत में मंहगी लागत से बनती थी।

भारत उन दिनों तकनीक के मामले में आत्म निर्भर नहीं था । भारत के ज़्यादातर कारखाने रूस के तकनीकी मदद से खुलते थे।  उदारीकरण की मार, बदलते तकनीक और वैश्विक बाजार के आगे कई भारतीय कंपनियों के तरह हिंदुस्तान केबल्स भी टिक नहीं पाया और घाटे में चलने लगा।

हिंदुस्तान केबल्स को मुनाफा में लाने की कई कोशिशें हुयी पर नाकाम रही । हिंदुस्तान केबल्स का मुख्य खरीददार बीएसएनएल जो स्वयं भी अपनी अस्तित्व की लड़ाई  लड़ रहा था ने वर्ष 2003 से एचसीएल को  ऑर्डर देना बंद कर दिया । ऑर्डर की कमी के वजह से एचसीएल का उत्पादन बंद हो गया । उस वक्त केंद्र में भाजपा की सरकार थी । ऐसा नहीं है कि भारत में केबल की खपत नहीं है,  लेकिन तकनीक बदल गयी है , कई प्रकार के केबल्स बाजार में उपलब्ध है। ऑप्टिकल फाइबर केबल के क्षेत्र में नए आयाम की तरह जुड़ गया ।   आर्थिक उदारीकरण के कारण एचसीएल से सस्ते केबल भी बाजार में आ गए हैं।

भाजपा सरकार में बंद हुई एचसीएल लेकिन यूपीए अपने दस वर्षों के कार्यकाल में कुछ न कर सकी

2004 में यूपीए की सरकार आने के बाद फिर इसे अन्य कंपनियों में विलय करने की भी योजनाएँ बनी पर  वह धरातल पर न उतर सकी।  वर्ष 2014 तक के यूपीए कार्यकाल में एचसीएल को लेकर कोई भी  निर्णय नहीं लिया जा सका।  इस बीच प० बंगाल में भी सत्ता परिवर्तन हो गया। ममता बनर्जी के नेतृत्व में तृणमूल की सरकार बनी . वही ममता बनर्जी जो नरसिम्हा राव की सरकार में मानव संसाधन और खेल मंत्री थी।

1997 में उन्होने कांग्रेस छोड़ नयी पार्टी बनाई। 1999 में एनडीए में शामिल हो गयी और रेल मंत्री बनी थी।  एनडीए और यूपीए में उनका आना जाना लगा था। वर्ष 2009 में  फिर एक बार ममता बनर्जी रेल मंत्री और वर्ष 2011 तक केंद्र में रही उसके बाद प० बंगाल की कुर्सी संभालने लगी। इतने समय के दरम्यान वर्ष 2003 से बंद पड़े प० बंगाल के एक कारखाने के पुनरुद्धार के लिए केंद्र से कुछ ले नहीं पायी।

एचसीएल अकेला कारख़ाना नहीं था जो बंद था। आसनसोल दुर्गापुर क्षेत्र में कई कारखाने थे जो तारणहार की बाट जोह रहे थे। इन कारखानों की बंदी का ठीकरा तत्कालीन वाममोर्चा सरकार पर फोड़कर सत्ता तो प्राप्त कर ली लेकिन एक भी बंद कारखाने को खुलवा नहीं पायी।

बाबुल सुप्रियो ने दिया था एचसीएल पुनरुद्धार का आश्वासन

वर्ष 2014 में नरेंद्र मोदी की सरकार बनी और आसनसोल से बाबुल सुप्रियो सांसद बने। अपने चुनाव प्रचार के दौरान उन्होने एचसीएल के पुनरुद्धार का आश्वासन भी दिया था और संयोग देखिये कि मोदी सरकार ने उन्हें भारी उद्योग मंत्रालय का राज्यमंत्री बनाया। एचसीएल भारी उद्योग मंत्रालय के अंतर्गत ही आता है।

मंत्री रहते हुये अपने विभाग के कंपनी को बचाने के लिए बाबुल सुप्रियो कुछ कर नहीं पाये और वर्ष 2016 में मोदी सरकार ने एचसीएल कंपनी बंद करने की घोषणा कर दी। साथ ही सभी कर्मचारियों एवं अन्य लेनदारों  के बकाया भुगतान की भी घोषणा कर दी।

एक आंकड़े के मुताबिक कंपनी ने करीब पाँच हजार करोड़ रुपया का बकाया भुगतान किया और कंपनी को करीब तीन हजार करोड़ का नुकसान हुआ।  कंपनी के बेचे जा सकने वाले कल पुर्जों को नीलाम कर दिया गया । अपने पैसे लेकर कर्मचारी चले गए । क्वार्टर वीरान हो गए । कंपनी और पूरा क्षेत्र खंडहर में तब्दील हो गया। फिर शुरू हुआ चोरो का राज। कंपनी के बचे खुचे भाग को इलाके के चोर बेचने लगे  यहाँ तक कि ईंटों को भी उखाड़ कर बेच दिया।

मूलभूत सुविधाओं के बंद होने से शुरू हुई समस्या

कंपनी के कर्मचारियों के चले जाने के बाद कंपनी ने अपनी सभी कर्मचारी सुविधाओं को बंद कर दिया , मसलन स्कूल, अस्पताल, बिजली पानी इत्यादि।

वर्तमान में जो लोग पुनर्वास आंदोलन कर रहे हैं उनका कंपनी से कोई संबंध नहीं है । उनमें से कुछ लोग वर्षों से उस क्षेत्र में रहकर छोटा-मोटा रोजगार कर अपनी आजीविका चलाते थे। कंपनी के बंद होने से उन्हें कोई खास फर्क नहीं पड़ा था लेकिन कर्मचारी सुविधाओं के बंद हो जाने से उन्हें फर्क पड़ा और उनका जीवन अब अस्त-व्यस्त हो गया।

क्यों संभव नहीं है पुनर्वास  ?

मुश्किल में पड़े नागरिकों की मदद करना सरकार का कर्तव्य है और वह उसके लिए बाध्य है लेकिन किसी कंपनी को इसके लिए बाध्य नहीं किया जा सकता है।  एचसीएल के बंदी की घोषणा के बाद उसका अस्तित्व समाप्त हो गया है और और अब उसके पुनरुद्धार की कोई संभावना नहीं है।  उसकी जमीन केंद्र सरकार की है और केंद्र सरकार की ज़मीनों को सरकार बेच नहीं सकती है इसे किसी अन्य उद्योग के लिए अन्य कंपनी को लीज पर या दूसरे मंत्रालय को दिया जा सकता है। केंद्र सरकार की जमीन पर किसी गैर संबन्धित व्यक्ति को पुनर्वास देने का कोई सवाल ही नहीं उठता है।  ऐसा किसी भी केंद्रीय कंपनी या विभाग में नहीं होता है।

कोल इंडिया की कुछ आनुषंगिक कंपनियाँ अपने क्षेत्र में बसे गैर संबन्धित लोगों को पुनर्वास देती है तो इसके पीछे कंपनी का फायदा छिपा होता है। किसी गाँव को खाली करा कर , मुआवजा देकर कंपनी कोयला उत्पादन करती है और यह उसके लिए फायदे का सौदा होता है लेकिन किसी गैर लाभकारी जमीन में ऐसा होना संभव नहीं है।

विवाद जितना गहराएगा , समाधान उतना ही मुश्किल होगा

प्राप्त जानकारी के मुताबिक एचसीएल के खाली पड़े क्वार्टरों को  आस-पास के लोगों ने अपने कब्जे में ले लिया है। उन्हें किराए पर लगाने और क्वार्टर एवं खाली पड़े ज़मीनों की  अवैध खरीद बिक्री तक की भी खबरें हैं।  संभव है कि कुछ भू माफिया भोले- भाले लोगों को बेवकूफ बना दें और उनसे पैसे ऐंठ लें।

जिस तरह से पुनर्वास आंदोलन को राजनीतिक प्रश्रय मिल रहा है उससे संभावना है कि आने वाले समय में इस क्षेत्र के बड़े भू भाग पर अवैध कब्जा हो जाएगा । फिर अपने कब्जे को बनाए रखने के लिए संघर्ष होगा और वोट बैंक की राजनीति होगी।

इन सबके के बीच कोई भी निजी कंपनी इतने पचड़े में पड़कर यहाँ उद्योग लगाना नहीं चाहेगी,  सरकार भी कोई उद्योग लगाएगी इसकी संभावना कम ही है।  केंद्र सरकार की ओर से कोई कंपनी स्थापित की जाएगी ऐसा कोई संकेत न तो नरेंद्र मोदी और न ही ममता बनर्जी ने आसनसोल या किसी सभा में दिये हैं।  मान लेते हैं कि केंद्र की मंशा नहीं है पर ममता बनर्जी ने भी कोई आश्वासन नहीं दिया कि दूसरी सरकार बनने के बाद नए प्रधानमंत्री से वे पुनर्वास या नए उद्योग के लिए बात करेंगी।

न मोदी और न ममता के एजेंडे में है एचसीएल

किसी भी सांसद या विधायक के बस की बात नहीं है कि वो अपने क्षेत्र में कारख़ाना लगा पाये । यह केवल मात्र सरकार और सरकार के मुखिया द्वारा ही संभव है और न तो केंद्र और न राज्य के मुखिया ने ऐसा कोई संकेत एचसीएल को लेकर दिया है।  एचसीएल किसी के एजेंडे में है ही नहीं । इसका साफ मतलब है कि पुनर्वास के नाम पर जो आंदोलन चल रहा है और उसे जो राजनीतिक समर्थन मिल रहा है वो  पूरी तरह से खोखला है और मात्र राजनीतिक शगुफा है।  जब भारी उद्योग  मंत्री रहते हुये बाबुल सुप्रियो अपने विभाग के कारखाने के लिए कुछ नहीं कर पाये या नहीं किए तो फिर मात्र किसी सांसद या विधायक के बूते की यह बात नहीं है।

“गेट”, “डबल्यूटीओ ”  समझौता है बड़ी वजह

और  सबसे बड़ी बात यह है कि देश जिस आर्थिक दिशा में चल रहा है (एनडीए और यूपीए दोनों द्वारा ) उसमें नए सरकारी कंपनी लगाने का कोई प्रावधान ही नहीं है। उल्टा पहले से चल रही सरकारी कंपनियों को बेचने का प्रावधान है। और यही “गेट”, “डबल्यूटीओ ”  समझौते की शर्त है जिसका पालन करने के लिए देश बाध्य है । ज्यादा से ज्यादा पूंजी निवेश इनका लक्ष्य है।

पूंजी निवेश का मतलब होता है निजी कंपनियाँ आइये हमारे जमीन पर उद्योग लगाइए , हमारे यहाँ उद्योग लगाने से आपकी कंपनी को फलां -फलां लाभ होगा । आपको हमारी सरकार की ओर से ये-ये  सुविधाएं दी जाएगी।  आपकी कंपनी से हमारे लोगों को रोजगार मिलेगा और आपके माल बेचने पर हमें टैक्स । कई बार पूंजी निवेश इतना जरूरी होता है कि सरकारें कई वर्षों तक टैक्स छूट देती है , मुफ्त जमीन, बिजली, पानी देती है। इसके बाद भी  कोई भी निजी कंपनी किसी विवादित जगह में उद्योग नहीं लगाती है।

Last updated: अप्रैल 27th, 2019 by Pankaj Chandravancee

Pankaj Chandravancee
Chief Editor (Monday Morning)
अपने आस-पास की ताजा खबर हमें देने के लिए यहाँ क्लिक करें

पाठक गणना पद्धति को अब और भी उन्नत और सुरक्षित बना दिया गया है ।

हर रोज ताजा खबरें तुरंत पढ़ने के लिए हमारे ऐंड्रोइड ऐप्प डाउनलोड कर लें
आपके मोबाइल में किसी ऐप के माध्यम से जावास्क्रिप्ट को निष्क्रिय कर दिया गया है। बिना जावास्क्रिप्ट के यह पेज ठीक से नहीं खुल सकता है ।