मेरी बात : समाज हमें जीने की शक्ति देता है
इंसान समाज में रहता है। इसलिए समाज ने उससे कुछ दायित्व भी तय किए हैं। हालाँकि समाज हमसे कोई विशेष कार्य की मांग नहीं करता,बल्कि जो कुछ हमें समाज से प्राप्त होता है, उसे ही हमें किसी ना किसी रूप में समाज को वापस करना होता है। मनुष्य को कभी भी यह बात नहीं भूलनी चाहिए कि उसका अस्तित्व समाज से है,समाज का अस्तित्व उससे नहीं। जो मनुष्य समाज से अलग-थलग होकर चलते है, उन्हें जीवनभर कठिनाईयों का सामना करना पड़ता है. जबकि जो मनुष्य समाज के साथ मिलकर चलते है, उनकी बड़ी से बड़ी समस्या तक मिनटों में हल हो जाती है। इसका कारण यही है कि सामाजिक होने के कारण ही प्रत्येक व्यक्ति हमारी समस्या या चिंता का निदान खोजने की कोशिश करता है। प्रत्येक व्यक्ति का कर्त्तव्य है कि वह निजी स्वार्थ से ऊपर उठकर जनहित और लोक कल्याण के बारे में सोचे। जब हम दूसरों के बारे में सोचकर कर्म करते है तो हमें इसका दोहरा लाभ मिलता है। हमें आत्म-सन्तुष्टि का एहसास होता है, जबकि ऐसा करके हम अपन भविष्य के कष्ट को भी काटते या उसका प्रभाव कम करते है। हमारे जनहित के कार्य से जितने भी लोग प्रभावित-लाभान्वित होते है, वे बदले में हमे प्यार,स्नेह,आशीर्वाद और दुआ देते है. जिससे हमारे कष्ठ अप्रभावी हो जाते है या फिर हममें उन्हें सहने की असीम ताकत आ जाती है। धर्म शास्त्रों में कहा गया है कि यदि किसी मनुष्य ने अपने जीवन का तीन-चौथाई हिस्सा गलत कार्यो में खर्च कर दिया है तो भी वो शेष बचे समय में सद्कर्म या जनहित के कार्य करके पश्चताप कर सकते है।अर्थात अंत भला तो सब भला। जनहित का कार्य करने के लिए मनुष्य को केवल एक छोटा सा प्रयास करना होता है। दुःख दर्द सभी के जीवन में है, लेकिन जो व्यक्ति अपने दुखों को ही सबसे बड़ा और जटिल मान लेता है, उससे जनहित के कार्य करने की अपेक्षा नहीं की जा सकती है। इसके विपरीत जो दूसरों के दुखों को महसूस करे और उनके सामने अपने दुखों को भूल जाय, वास्तव में जनहित के बारे में सोच सकता है
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