जानिए हिंदुस्तान में ताजिये की शुरुआत कैसे हुई

आज मुहर्रम का चालीसवाँ हैं। इस अवसर पर आइये जानते हैं कि हिंदुस्तान में मुहर्रम के अवसर पर निकाले जाने वाले ‘ताजिये’ का क्या इतिहास है ।

“अवध” के नवाब “शुजाउद्दौला” का निकाह, सन् 1745 ईसवी में दिल्ली के वज़ीर ख़ानदान की यतीम बच्ची “उम्मतुज़्ज़हरा” के साथ “दारा शिकोह” के महल में बड़ी शान व शौकत के साथ हुआ। दिल्ली से काफ़ी माल व दौलत के साथ “उम्मतुज़्ज़हरा” अवध (फ़ैज़ाबाद) तशरीफ़ लायीं।

“उम्मतुज़्ज़हरा” बहुत ही रहम दिल ख़ातून थीं। उनके अन्दर सबसे ख़ास बात ये थी कि मदद करते वक़्त, किसी से उसका धर्म या मज़हब नहीं पूछती थीं यही वजह थी कि हर धर्म के लोग उनका सम्मान करते थे, उनकी इसी रहम दिली और सख़ावत की वजह से उन्हें “बहु बेगम” के ख़िताब से नवाज़ा गया।

“बहु बेगम” हर साल मुहर्रम में “कर्बला” (इराक़) जाती थीं और जो ज़ेवर उनके पास होता था वो सब इमाम हुसैन अस. के रौज़े पर रखकर चली आती थीं।

सन् 1805 ईसवी में वो शदीद बीमार हो गयीं लेकिन कर्बला जाने की ज़िद करने लगीं। हकीमों ने उन्हें सफ़र करने से मना कर दिया तो पूरे अवध में उनकी सेहत और सलामती के लिए दुआएं होने लगीं।

उन्होंने काग़ज़ और क़लम मंगाया और कांपते हाथों से कोई तसवीर बनाई , हकीमों ने पूछा आपने ये क्या बनाया है? तो उनके मुँह से निकला “हाय हुसैन, हाय कर्बला”। हकीम समझ गए कि “बहु बेगम” मज़ारे हुसैन अस. की तसवीर बनाकर अपना ग़म ज़ाहिर करना चाहती हैं।

अब ईरानी कारीगरों को बुलाया गया और ये तसवीर दिखाई गयी, कारीगरों ने कहा हम इसे बना सकते हैं, और 9 मुहर्रम तक उन कारीगरों ने बाँस की तीलियों से “नक़्ले मज़ारे इमाम हुसैन अस.” तैयार कर दिया।

जब “बहु बेगम” से इसके बारे में बताया गया तो उनके अन्दर एक नई जान आ गयी, उन्हें सहारा देकर “गुलाब बाड़ी” तक लाया गया तो उनके मुँह से निकला “या जनाबे सैयदा मैं आपको आपके मज़लूम बेटे की “TAZIAT” पेश करती हूँ। इसतरह “नक़्ले मज़ारे हुसैन अस.” को लोग TAZIA कहने लगे।

9 मुहर्रम सन् 1805 ईसवी में गुलाब वाड़ी-फैज़ाबाद में हिन्दोस्तान का पहला TAZIA रखा गया।

इस TAZIYE को इतनी शोहरत मिली कि बनारस, सुल्तानपुर, जौनपुर, आज़मगढ़, अकबरपुर, जलालपुर, लखनऊ, बाराबंकी, सीतापुर, बलरामपुर, इलाहाबाद, गोरखपुर, हल्लौर आदि जगहों के कारीगर इसे देखने के लिए आये और काग़ज़ पर इसकी तस्वीर बनाकर ले गए फिर अपने-अपने शहरों, क़स्बों और गाँव में TAZIA बनाने लगे।

फैज़ाबाद के एक मशहूर अदीब “लईक़ अख़्तर” साहब मरहूम, हल्लौर में बनाये जा रहे TAZIYE को, सन् 1805 में ईरानी कारीगरों द्वारा बनाए गए TAZIYE की हूबहू नक़्ल मानते थे।

सन् 1816 ईसवी में “बहु बेगम” का इंतेक़ाल हो गया मगर आज भी जवाहर बाग़-फैज़ाबाद में उनका मक़बरा लोगों की निगाहों का मरकज़ बना हुआ है।


रिजवान रजा ( नई दिल्ली)

Last updated: अक्टूबर 30th, 2018 by Central Desk - Monday Morning News Network

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