मेरी बात,,,, ट्रैन में कैद हैँ बचपन, लेखक सह पत्रकार अरुण कुमार
मेरी बात,,,, ट्रैन में कैद हैँ बचपन, आज का यह टॉपिक मैं बड़े ही उदास मन से लिख रहा हूँ फ्रेंड्स क्योंकि मेरी नजर ने जो आज धनबाद से कोलकत्ता रेलवे के सफर दौरान जो देखा जो महसूस किया वहीँ आज मैं बयान करना चाहता हूँ क्योंकि सच में इस रेलवे सफऱ के बीच मुझे दो नन्हें बच्चों का बचपन दिखाई दिया जो बच्चे ढोलक की थाप के साथ रेलवे में सफऱ कर रहे आमलोगों की मनोरंजन के साधन का कार्य कर रहे थे तभी से मेरे मन के मंदिर को अंदर तक झकझोर दिया हैँ और मन दुखी भी हो गया और दुःखी क्यों ना हो क्योंकि इन बच्चों का बचपन आज इसी ट्रैन के सफर में खो जाएगा ऐसा ही मुझे लगता हैँ ना रेलवे और ना ही सरकार अगर इन बच्चों का बचपन वापस कर सकता हैँ और ना ही इन बच्चे के अभिभावक फिर कौन गलत हैँ ये बात समझ से परे हैँ लेकिन इन बच्चों को चेहरे पर मुस्कान की जिम्मेदारी किसी ना किसी को तो लानी होगी आज सरकार कई तरह की योजनाए लाती हैँ किन्तु ऐसे बच्चे का बचपन इसी ट्रैन की बोगी से शुरू होकर इसी रेलवे की बोगी में सफर करके खत्म ना हो जाए यही सोचकर मैं थोड़ा दुःखी हूँ, आज ये बच्चे उन सबके लिए एक सबक हैँ जो कि अपने बच्चों को इस हॉल में छोड़ देते हैँ कि कैसे भी यह बच्चे उन हालातों से लड़ सके मगर सच्चाई कुछ अलग हैँ आज हमसब इतने पढ़ लिख लिए हैँ कि सब कुछ जानकार भी अनजाने में जिए जा रहे हैँ कहने को तो सरकार कई योजनाएं इन बच्चों के लिए चला रही हैँ किन्तु यह योजना केवल और केवल कागज पर ही लगता हैँ कि उपलब्ध हैँ अन्यथा आज एक ट्रैन की बोगी में ऐसे बच्चे दिखाई दिए हैँ जबकि ऐसे कई ट्रैन प्रतिदिन चलती हैँ कामोंवेश सभी रेलवे ट्रैन में यही हॉल होता होगा तभी आज इस तरह के बच्चों का बचपन बचाने की जरुरत हैँ अन्यथा आने वाली हमारी पीढ़ी कभी भी आगे नहीं बढ़ सकती हैँ जबकि सरकार को एक कदम आगे बढाकर इन बच्चों के भविष्य को सुद्धरीढ़ करने की जरुरत हैँ अन्यथा ऐसे बच्चों का बचपन कही ट्रैन की बोगी में ही कैद होकर ना रह जाए,,,,,,,
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