मेरी बात — “पेट की भूख ” # बहार से रजनी गंधा तक का सफऱ # @ लेखक सह पत्रकार ( अरुण कुमार )
मेरी बात — “पेट की भूख ने (काला + बहार) खाने की लत लगाई “और आज यहीं (रजनीगंधा + तुलसी ) का रूप धारण कर ली हैँ,” कड़वा हैं मगर सच हैँ ✍️✍️,,
आज का यह टॉपिक वाकई में कई मायनों में खास हो जाता हैँ क्योंकि जब बात अपने ऊपर ही आए और आकर रुक जाए तो आप सब लोग समझ सकते हैँ कि बात कितनी कड़वी होगी किन्तु सत्य भी होगी यह मेरी खुद की आप बीती कहानी हैँ जो की आज मेरी जुबानी बन कर बाहर निकल रही है बात कुछ साल पहले की हैँ जब मैं नमक तेल बेचा करता था उस समय मैं रासन दुकानदार था और आज भी हूँ किन्तु काम के सिलसिले में मैं अक्सर धनबाद का दौरा किया करता था उस समय मैं अपने गल्ले से एक 50 रूपये का नोट लेकर निकलता था और उस पैसे में से 40 रूपये पेट्रोल पर खर्च किया करता और बाकी 5 रूपये का एक (काला + बहार )लिया करता था और बाकी पैसे का भगवान भरोसे जेब में रखकर चल दिया करता था और ज़ब ज़ब पेट की आग जलती थी तो उस ( काला + बहार ) से अपनी भूख मिटाने की कोशिश किया करता था, जो की शास्वत सत्य हैँ वहीँ एक बार काफी लेट हो जाने की वज़ह से उस बचे हुए 5 रूपये का चाय पी लूँ या मुख्यमंत्री ( दाल + भात )योजना खा लूँ इसी सोच में मैंने उस समय स्टील गेट धनबाद में उस योजना का ना चाहते हुए भी खाना खाया और पेट की भूख को मिटाया कहते हैँ कि किसी को अगर दिल से आप बनाने के पीछे लग जाए तो सारी कायनात भी आपका कुछ नहीं बिगाड़ सकती कुछ लोगों ने मुझे पागल तक घोषित कर दिया था वैसे मैं पागल भी नहीं हूँ किन्तु समय का मारा किया करे बेचारा वाली कहावत मेरे साथ भी लागू थी वैसे एक बात यहाँ यह भी सटीक बैठती हैँ कि हमें तो अपनों ने लुटा गैरों में कहाँ दम था हमारी किस्ती थी डूबी वहाँ जहाँ पानी भी कम था मगर बात को आगे बढ़ाने से समझ में आया की अगर आप स्वयं पर विश्वास करें तो सारा जहांन आपको पलकों पर बिठाने को भी तैयार रहता हैँ और यहीं जिद्द और एकाग्रता ने मुझे अंदर से आज इतना मजबूत कर दिया हैँ कि मैं स्वयं नहीं जान पा रहा हूँ कि मैं पहले वाला ही अरुण हूँ या अब अरुण कुमार हो गया हूँ किन्तु कहते हैँ ना कि इंसान को अपना अतीत कभी नहीं भूलना चाहिए तो मैंने आज अपना अतीत आप सबको बता दिया और आगे भी उसी फाइट के साथ आज भी संघर्षरत हूँ क्योंकि मुझे अपनों की पड़ी हैँ तभी आज भी मैं हठधर्मी हूँ किन्तु उसी 5 रूपये के काले बहार ने आदमी की पहचान करा दी हैँ कि इंसान के और भी रूप होते हैँ, अपने जीवन के वे 10 साल संघर्ष की एक अलग ही कहानी कह गई हैँ जिसकी भरपाई ताउम्र नहीं की जा सकती हैँ तभी तो दोस्तों दो किताब लिख देने के बाद भी मैं स्वयं में आज भी संघर्ष ही कर रहा हूँ! वैसे आज एक बात और कह रहा हूँ और यह आप सबों के लिए लिख रहा हूँ कि # अपने और अपनों के सपने के लिए तो सभी जीते हैँ मगर जो दूसरों के सपनों के लिए जिए जाए तो उनके किया कहने हैँ, तो दोस्तों अरुण से अरुण कुमार बनने के लिए मैं खुली आँख से सपने देखा करता था तब जाकर कुछ सपने सच हुए हैँ और मुझे दिन में भी तारे नजर आया करते थे यहीं सच हैँ और विशेष अगले अंक में ✍️✍️✍️✍️✍️✍️✍️
सबों का आभार,
अरुण कुमार लेखक सह पत्रकार
मंडे मॉर्निंग न्यूज़ नेटवर्क
भागवत ग्रुप कारपोरेशन
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