धनतेरस क्यूँ मनाया जाता हैँ ? कथा धनतेरस की —- @
धनतेरस क्यूं मनाया जाता है🌺🌺 धनतेरस की कथा🌺
श्री धन्वन्तरि को समर्पित है। इसी दिन ये समुद्र मंथन से अपने हाथोँ में अमृत कलश लेकर प्रकट हुए थे। कलश के साथ प्रकट होने के कारण ही आज के दिन धातु (सोना, चाँदी) एवं बर्तनों को खरीदने की परंपरा आरम्भ हुई। देव धन्वन्तरि को भगवान विष्णु के २४ अवतारों में से एक माना गया हैँ,
नारायण की भांति ही धन्वन्तरि भी चतुर्भुज हैं और ऊपर के दो हाथों में श्रीहरि की भांति ही शंख और चक्र धारण करते हैं। अन्य दो हाथों में औषधि और अमृत कलश होता है। ऐसी मान्यता है कि आज के दिन जो कुछ भी हम खरीदते हैं वो १३ गुणा बढ़ जाता है। इसी कारण आज के दिन देश भर में लोग कुछ न कुछ खरीदते हैं। इसके विषय में कई कथा प्रचलित है:समुद्र मंथन के दौरान कालकुट विष,उचेश्रवा अश्व,ऐरावत गज,कौस्तुभ मणि,कल्पवृक्ष,रंभा अप्सरा, वरुणी मदिरा,परिजात पुष्प,चंद्रमा,शंख,द्वादशी को कामधेनु, त्रयोदशी को धन्वन्तरि, चतुर्दशी को माँ काली एवं अमावस्या को देवी लक्ष्मी का प्रादुर्भाव हुआ। इसी कारण दीपावली के दो दिन पहले धन्वन्तरि जयंती या धनतेरस मनाई जाती है।
आज के दिन ही भगवान विष्णु वामन अवतार लेकर दैत्यराज बलि के यज्ञ में पहुँचे और देवताओं के कार्य में विघ्न डालने वाले दैत्यगुरु शुक्राचार्य की आँख बलि के हाथों फोड़ दी। उसके बाद उन्होंने तीन पग में तीनों लोक नाप कर बलि को पाताललोक जाने को विवश कर दिया।
वर्ष में केवल एक आज के दिन ही मृत्यु के देवता यमराज का पूजन होता है। इसके पीछे एक कथा है कि हेम नामक एक राजा को एक पुत्र हुआ जिसकी कुंडली देखकर विद्वानों ने बताया कि विवाह से चौथे दिन ये मृत्यु को प्राप्त होगा। डर कर हेम ने अपने पुत्र को एकांत में भेज दिया किन्तु दैवयोग से वहाँ एक कन्या आ पहुँची और दोनों ने गन्धर्व विवाह कर लिया। चौथे दिन कृष्ण त्रयोदशी के रोज उस युवक को लेने यमदूत आ पहुँचे किन्तु नवविवाहिता कन्या का रुदन देख कर वे वापस यमराज के पास पहुँचे और उनसे कोई उपाय बताने की प्रार्थना की ताकि उस कन्या का सुहाग बना रहे। तब यमराज ने कहा कि आज त्रयोदशी के दिन जो भी अपने द्वार पर दक्षिण दिशा की ओर दीपक जला कर मेरी पूजा करेगा उसे मृत्यु का भय नहीं रहेगा। इसी कारण धनतेरस में द्वार पर दीपक जलाने की प्रथा भी है।
इसी बारे में एक और कथा भी है जब देव धन्वन्तरि ने यमदूतों से ये पूछा कि “क्या प्राणियों के प्राण लेते समय तुम्हारा ह्रदय नहीं पसीजता? तब उन्होंने कहा कि यमराज की आज्ञा के कारण वे विवश हैं। तब धन्वन्तरि यमराज के पास पहुँचे और यही प्रश्न किया। इसपर यमराज ने उन्हें आशीर्वाद देते हुए कहा कि आज से आपके प्रादुर्भाव के दिन जो भी मेरी पूजा करेगा उसे मृत्यु का भय नहीं होगा।
इस दिन लक्ष्मी पूजन के विषय में भी एक अद्भुत कथा है। एक बार विष्णुजी एवं लक्ष्मीजी कही जा रहे थे। विष्णुदेव ने लक्ष्मी से कहा कि मैं दक्षिण को जा रहा हूँ तुम उधर मत देखना। तब कौतुहल वश लक्ष्मी जी ने उधर देख लिया जिससे रुष्ट होकर नारायण ने उन्हें १२ वर्ष पृथ्वी पर रहने का श्राप दिया। १२ वर्ष लक्ष्मी एक निर्धन किसान के घर रही और उसे धन-धान्य से पूर्ण कर दिया। १२ वर्ष बाद जब विष्णु जी उन्हें लेने आये तो किसान ने उनका आँचल पकड़ लिया और कहा माँ मैं तुम्हे जाने नहीं दूंगा अन्यथा मैं फिर निर्धन हो जाऊँगा। तब लक्ष्मीजी ने कहा कि कल धनतेरस है और मैं तुम्हारे घर पूजा करुँगी। इससे मेरे जाने के बाद भी तुम्हारे ऐश्वर्य में कोई फर्क नहीं पड़ेगा। इसी लिए धनतेरस के दिन पूजा करने वाले पर सदा लक्ष्मीजी की कृपा बनी रहती है।
जैन धर्म में भी इस पर्व का बड़ा महत्त्व है जहाँ इसे “ध्यान तेरस” नाम से मनाया जाता है। मान्यता है कि आज के दिन ही भगवान महावीर ध्यानमुद्रा में चले गए और तीन दिन उसी मुद्रा में रहने के पश्चात दीपावली के दिन ही उन्होंने शरीर का त्याग किया।
आज के दिन कई प्रकार के बीजों को बोने की भी प्रथा है। विशेषकर धनिया के बीज को खरीदकर लोग अपने घर में रखते हैं।
दीवाली के पूजन हेतु लक्ष्मी-गणेश की मूर्ति भी आज ही के दिन खरीदने की प्रथा है।
आज के दिन चाँदी खरीदना बहुत शुभ माना जाता है। चाँदी को धन्वन्तरि से दो दिन पूर्व उत्पन्न चंद्रदेव का प्रतीक माना जाता है और आज के दिन चाँदी खरीदने से जीवन में शीतलता और शांति आती है।
धन्वन्तरि की प्रिय धातु पीतल है इसी कारण आज के दिन सबसे अधिक पीतल के बर्तन ही खरीदे जाते हैं।
धन्वन्तरि से ही आयुर्वेद की उत्पत्ति हुई। इन्ही के वंश में आगे चलकर दिवोदास हुए जिन्होंने काशी में प्रथम शल्य-चिकित्सा विद्यालय आरम्भ किया। इसका आचार्य इन्होने राजर्षि विश्वामित्र के पुत्र “सुश्रुत”, जो इनके प्रिय शिष्य भी थे, उन्हें बनाया। इन्ही सुश्रत ने “सुश्रुत संहिता” लिखी और विश्व की प्रथम शल्य चिकित्सा का श्रेय भी इन्ही को जाता है।
आयुर्वेद के विषय में ये कहा जाता है कि इसे सर्वप्रथम परमपिता ब्रह्मा ने कहा जिसमे १००० अध्याय एवं १००००० श्लोक थे। उनसे ये प्रजापति को प्राप्त हुआ। प्रजापति से अश्विनीकुमार और फिर अश्विनीकुमारों से इंद्र को इसका ज्ञान हुआ। इंद्र से ये धन्वन्तरि को मिला और बाद में धन्वन्तरि ने सम्पूर्ण आयुर्वेद को ८ भागों में बाँट कर लिखित रूप दिया।
धन्वन्तरि से आयुर्वेद का ज्ञान सुश्रुत को प्राप्त हुआ जिन्होंने आयुर्वेद को लिखित रूप में विश्व को प्रदान किया। उनसे अग्निवेश और अग्निवेश से ये चरक को प्राप्त हुआ जिन्होंने “चरक संहिता” नामक पुस्तक लिखी।
कहते हैं काशी में ही भगवान शिव ने विषपान किया और धन्वन्तरि इसी नगर में अमृत प्रदान किया जिससे ये नगरी कालजयी बन गयी। ऐसी भी मान्यता है कि जब धन्वन्तरि समुद्र से अमृत लेकर निकले और दैत्यों से उसे बचाने को भागे तो उसी प्रयास में अमृत की कुछ बूंदें काशी में गिर गयी।
वैदिक काल में जो स्थान अश्विनीकुमारों को प्राप्त है, पौराणिक काल में वही स्थान धन्वन्तरि का है। जैसे नारायण पूरे जगत की रक्षा करते हैं, ये भी रोगों से प्राणियों की रक्षा करते हैं इसीलिए इन्हे नारायण का ही दूसरा रूप माना जाता है।
महाभारत में तक्षक एवं महर्षि कश्यप के बीच “विषविद्या” को लेकर एक संवाद है जिसमे धन्वन्तरि का वर्णन है और इसमें उन्हें कश्यप पुत्र गरुड़ का शिष्य बताया गया है।
धन्वन्तरि को देवताओं का वैद्य एवं आयुर्वेद का जनक माना गया है। आयुर्वेद के तीन सबसे बड़े ग्रंथों – चरक संहिता,सुश्रुत संहिता और अष्टांग संग्रह के अतिरिक्त सभी अन्य ग्रंथों में वे आयुर्वेद के प्रणेता माने गए हैं।
धन्वन्तरि ने १०० प्रकार की मृत्यु बताई है जिनमें से केवल १ ही काल मृत्यु है। शेष ९९ अकाल मृत्यु से बचने का मार्गभी धन्वन्तरि ने आयुर्वेद में बताया है।
भागवत पुराण के अनुसार धन्वन्तरि को भगवान विष्णु के २४ अवतारों में से एक माना गया है हमारे धार्मिक ग्रंथों में तीन धन्वन्तरि का वर्णन मिलता है:
समुद्र मंथन से उत्पन्न धन्वन्तरि: ऐसा वर्णन है कि जब देवों और दैत्यों ने मिलकर समुद्र मंथन किया तो उससे १४ मुख्य रत्न निकले। उन्ही में से अंतिम रत्न अमृत लेकर स्वयं धन्वंतरि प्रकट हुए।
राजा धन्व के पुत्र धन्वन्तरि: दूसरी कथा के अनुसार राजा धन्व ने अज्ज नामक देवता की आराधना की और उनसे वरदान माँगा कि वे उन्हें पुत्र के रूप में प्राप्त हों। तब धन्व को एक पुत्र की प्राप्ति हुई जिनका नाम धन्वंतरि पड़ा काशीराज दिवोदास धन्वंतरि:धन्वंतरि के ही वंशज हैँ जिन्होंने अपने महान पूर्वजों के नाम को अपनाया और स्वयं धन्वंतरि कहलाये,
शुभ धनतेरस, शुभ दीपावली
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