शोषण का इतिहास समेटे मौन मजदूर कथा

दोस्तों, दुनियां में एक  ओर भारत का योग, कला, अध्यात्म और अनुसंधान के क्षेत्र में डंका बज रहा है। पूरी दुनिया आज भारत का लोहा मान गयी है वो चाहे चांद पर पानी खोजने की बात हो या लार्ज हेड्रॉन कोलिजन महामशीन से बृह्माण्ड़ का सबसे सुख (गॉड पार्टिकल) की खोजने की बात चल रही हो। यह देख और सुन कर हमारा सिर गर्व से ऊँचा हो जाता है और दूसरी तरफ जब बात हमारे उस गरीब पिछड़े तबके की आती है जो कि मजदूर के घर में सिर्फ मजदूर होने के लिये मजबूर है। जिन तक सरकारी सुविधायें नहीं पहुंचती जिनका बचपन भूख, गरीबी, बेकारी, बेबसी और जिम्मेदारियों और लालच तले हर पल रोंदा जा रहा है। जिनका बचपन पेट की आग में हर पल सुलगता रहा है। वह होटलों पर बंधुआ मजदूर बनकर झूठे बर्तन धोने को मजबूर हैं। छोटे-बड़े ढ़ाबों, बस, ट्रेन, स्टेशनों पर चाय बेचने को मजबूर है।

बाल मजदूरी पर क्यों मौन हो जाता है सभ्य समाज

दोस्तों पूरे बाजार में कौन सी दुकान ऐसी जहाँ पर बाल मजदूर काम न कर रहे हों और ये किस से छिपा है आज। जबकि 12 जून को प्रतिवर्ष बालमजदूर विरोध दिवस पूरे देश में मनाया जाता है। आईएलओ 2002 से हर साल इस दिन को मनाता आ रहा है। हमारे देश में इतना सख्त कानून भी है।  फिर भी दोस्तों हमारे देश में 5-17 वर्ष की छोटी उम्र के 57लाख बाल मजदूर हैं। और विश्व में यह संख्या पूरे 2.5 करोड़ पार कर रही है। एक करोड़ बाल मजदूर हैं और सबसे बड़ी दुख की बात यह है कि उसमें पचास फीसदी बच्चियाँ हैं जो बहुत शर्मनाक है। देश का कानून कहता है कि 14साल के बच्चों से जबरन श्रम करवाया तो दण्ड़नीय अपराध है पर आकंड़े बताते हैं कि देश दुनिया में 11 वर्ष के छोटे बच्चे प्रत्येक दिन पूरे 20 घण्टे बालश्रम में लगे हैं। हालत यह है कि राजधानी दिल्ली में 14 बच्चे प्रत्येक दिन गायब हो जाते हैं और दोस्तों यही बच्चे फिर बाल मजदूरी और वैश्यावृत्ती जैसी घिनौनी दुनियां में जबरन उतारे जाते हैं। यूनीसेफ कहता है 5000-7000  नेपाली बच्चे मजबूरीवश वैश्यावृत्ति लिप्त हैं।

अश्लील वेबसाइट भटका रही है युवाओं को

 आज देश में जो भी मर्यादाहीनता दिख रही यह नेट पर गंदी सोसल साइटस का नतीजा है। जबकि देश की सरकारों को ऐसी अश्लील साईट्स पर बिल्कुल प्रतिबंध लगा देना चाहिये जो देश के सुनहरे भविष्य को असभ्य, अमर्यादित, हिसंक और पशु बनाने पर पूर्णत: अामादा हैं जिनका एकमात्र मकसद है युवाओं को भटकाना और उनका भरपूर शोषण करना। आज सब जानते है पर कोई आवाज नहीं उठती। आज हम फेसबुक पर लाईक और कॉमेन्ट्स तक सिमट चुके हैं  और वास्तविकता से कोसों दूर हो रहे हैं।

स्कूलों तक क्यों नहीं पहुँच रहे गरीब बच्चे

आज सरकारी प्राईमरी स्कूल में खिचड़ी मुफ्त, पढ़ाई मुफ्त, वजीफा भी और गणवेश भी मुफ्त फिर भी बच्चे नहीं आते ? शिक्षा में गुणवत्ता नहीं क्योंकि बच्चों को खिचड़ी के स्थान पर टेक्नोलॉजी की अच्छी व्यवस्था और गणवेश का रंग और ढंग आकर्षित करते हैं जबकि सरकारी स्कूलों में वॉशरूम की हालत किससे छिपी है।

बचपन से ही शुरू हो जाता है शोषण

यह बच्चे गरीब पिछड़े मजदूर और किसान के घरों से हैं जो कि कभी आलू बीनने चले जाते, कभी ईट- भट्टे पर काम करने, धान रोपने, कभी किसी की दुकान पर मजदूरी करने क्योंकि पेट की आग उनको पढ़ने नही देती । आंकड़े बताते हैं कि आज आधे से ज्यादा बाल मजदूर कृषिक्षेत्र में लिप्त हैं। बाद में यही बच्चे बड़े होकर बड़ी कम्पनियों के हाँथ की कठपुतली बन जातें हैं और दूर विदेशों में खून के आंसू रोते हैं जिनको प्रवासी मजदूर कहते हैं। तमाम सोसल मीडिया पर वीडियो बताते हैं कि दूर देशों में हजारों लाखों प्रवासी मजदूर अपने देश आने के लिये तड़प रहा पर वो मजबूर हैं क्योंकि जो कम्पनियाँ ऐजेंसी उनको मोटी सैलरी का लालच देकर अपने साथ ले जाती हैं वह परायी धरती पर पांव रखते ही उन मजदूरों से उनके पासपोर्ट छीन लेती हैं और फिर उनका काफी शारीरिक और मानसिक शोषण होता है। पर उनकी पुकार सुनने वाला कोई नहीं।

देश की अर्थव्यवस्था की रीढ़ हैं प्रवासी मजदूर

 देश को इन्हीं मजदूरों से श्रमिक रिपोर्ट के मुताबिक पूरे 70 अरब डालर की बहुत बड़ी धनराशि प्राप्त होती है जो कि देश की अर्थव्यवस्था की नींव मजबूत करती है | पर वह मजदूर जो स्वंय इस देश की नींव हैं आज वह नींव जर्जर हालत में हैं | आखिर! इन मजदूरों की खैर ख़बर क्यूँ नहीं ली जा रही।

धधकते कोयले के बीच काम करते हैं झरिया के मजदूर

अगर मजबूरी की इंतिहा देखनी हो तो झारखंड के झरिया शहर आइये! जहाँ इस्पात निमार्ण हेतु उच्चस्तरीय आवश्यक कोक उत्पादन हेतु  विश्व का सबसे महंगा कोयला ‘कोकिंग कोल’  निकाला जाता है। मैंने जाकर देखा है जो सौ वर्षों से सुलगते कोयले की दुनिया है। यहां का तापमान इतना अधिक है कि जूतों-चप्पलों के तलवे कुछ ही देर में पिघला दें। ऐसे साक्षात् नर्क में भी सौ वर्षों से लोग पापी पेट के लिये कोयले की ढुलाई करते चले आ रहे हैं मानो उनका शरीर इस गर्मी का आदी बन चुका है।आपको सुनकर कलेजा मुँह को आ जायेगा कि ऐसे नर्क में मजदूर को दिहाड़ी के नाम पर मात्र तीन – चार सौ रूपये मात्र मिलते हैं पर मजबूरी जो ना कराये वो कम है।
जिस देश की सरकार ने यमन में फंसे 14 भारतीय को सुरक्षित निकाल लिया था। पिछले वर्ष पूर्व सोवियत संघ के देश अजरबैजान में भारतीय कुशल मजदूरों को बंधक बनाया लिया गया था और उसका एक वीडियो अजरबैजान में फंसे एक भारतीय ने जो बिहार के गोपालगंज का निवासी है, ने किसी तरह अपने परिवार में भेजा था, क्या उसे न्याय मिल सका? यह खबर ही चुनाव की खबरों में दफ्न हो गयी।

एक साल में 289 भारतीय मजदूरों की कतर में मौत हुई है

उसी तरह खाड़ी देश के सबसे चकाचौंध शहर कतर जिसे रईसों का घर कहते हैं वहां से भी प्रवासी भारतीय मजदूरों की चिंताजनक खबरें आ रही हैं कि कतर में 2022 के विश्वकप फुटबॉल आयोजन के लिए जो बेशुमार निर्माण कार्य वहां चल रहा है उसमें दक्षिण एशिया से देशों (भारत तथा नेपाल) से भी अनेकों मजदूर गए हुए हैं।  अंतरराष्ट्रीय मानवाधिकार संगठन, एमनेस्टी इंटरनेशनल ने कतर के विश्व कप आयोजन और भव्य तैयारियों की रोशनी में एक सजग रिपोर्ट तैयार की है जिसमें प्रवासी भारतीयों की असमय, अचानक, गम्भीर हालत में गुमनाम होतीं मौतों पर कड़े सवाल उठाए गये हैं। भारतीय सरकार के आधिकारिक आंकड़ों के तहत  उसमें जवाब यह है कि पिछले एक साल में 289 भारतीय मजदूरों यानि कामगारों की कतर में मौतें हुई हैं पर ये साफ नहीं है कि इनमें से कितने मजदूर थे जो विश्व कप निर्माण कार्य में लगे थे।

प्रवासी मजदूरों के कुशलक्षेम पूछने के लिए पैनल बनाये सरकार

आज हमारे देश के नींव कामगारों को जिम्मेदारी से यह विचारना होगा  और खुद जवाबदेही तय करनी होगी कि मजदूरी के लिए दूर देश जाना कितना खतरनाक साबित हो सकता है। पर कहते हैं न “पर उपदेश कुशल बहुतेरे ” यह बात तब सार्थक हो जाती है कि जब दो मजबूर आँखें आँखों से ही सवाल कर देतीं हैं कि साहिब! मजदूर नही मजबूर हैं हम। यह अत्यंत दुखद है जिन मजदूरों के कारण सरकारी खजाने तथा देश की प्रतिष्ठा में इजाफा होता है वही इजाफा प्रति महीने उनकी खैर खबर में क्यों नहीं होता। आखिर ! ये सुस्ती क्यों ? हमें तो इतना ही कहना है कि प्रवासी मजदूर देश की संतान के समान है और देश की सरकारों की ये जिम्मेदारी है कि वह एक ऐसा पैनल बनाये जो प्रति महीने उनकी कुशलक्षेम की रिपोर्ट लें जिससे वह खुद को सुरक्षित महसूस करें न कि उपेक्षित।
अभी कुछ दिन पहले हमें अच्छा लगा यह देखकर कि सचिन तेंदुलकर ने ट्वीट किया कि हर बच्चे को अपने सपने का पीछा करने का पूरा हक है और सपने का पीछा होने दें। अगर इसी तरह देश दुनिया की नामचीन हस्तियां अगर आगें आयें और गांव – गांव जागरूकता फैलायी जाये और पुरानी मिलें, छोटे उद्योगों को बढ़ावा मिले और देश के कुशल कारीगरों को उचित सम्मान मिलें तो देश की प्रतिभायें दूर देशों में पलायन करने को मजबूर न होंगे और उनका कहीं भी शोषण न होगा।
आज देश दुनियां की सरकारें और देश दुनिया के सभी स्वंयसेवी संगठन एक हों जायें तो निश्चित ही बदलाव की क्रांति घट जाये और देश में बालमजदूरी, प्रवासी बाल मजदूरी जैसी गम्भीर समस्याओं में बहुत बड़ी सफलता हाथ लगे जिससे देश का सुनहरा भविष्य कहीं मुफलिसी और मजबूरी के अंधेरों में कहीं गुम न हो सके। आइये! इस ओर हम सब मिलकर कदम बढ़ायें और विकास के नये मार्ग बनायें।
Last updated: मई 13th, 2018 by आकांक्षा सक्सेना

आकांक्षा सक्सेना
ब्लॉगर, स्तंभकार ( कानपूर, उत्तर प्रदेश) सदस्य स्क्रिप्ट राइटर्स एसोशिएसन, मुम्बई
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