जन हैँ तो धन हैँ – अरुण कुमार ( लेखक सह पत्रकार )
“जन हैँ तो धन हैँ ”
जैसे धन को बचाने के लिए जन का होना जरुरी हैँ वैसे ही जन को बचाने के लिए जन का होना नितांत ही जरुरी हैँ किन्तु आज की ये विडंबना हो गई हैँ कि एक इंसान धन को बचाने के चक्कर में निर्धन बन बैठा हैँ वो पता नहीं किस पेसोपेस में रह रहे हैँ ये तो तब समझ में आती हैँ ज़ब वो इंसान धन के चक्कर में अपना सब कुछ गवां बैठता हैँ किन्तु आज ये बातें आप सब लोग जान ले कि जन हैँ तो धन हैँ बाकी सब कुछ निर्धन हैँ क्योंकि अगर जैसे धन को कमाने के लिए एक इंसान का होना अति आवश्यक हैँ ठीक उसी तरह एक जन को बचाने के लिए जन का होना एकदम से जरुरी हैँ क्योंकि अगर जन हैँ तो जान बच जायेगी और जन नहीं हैँ तो जान चली भी जायेगी ये एक कड़वा सच हैँ जो कि कुछ इंसान जानकर भी अनजान बनने का नाटक करते हैँ और सारी गलती यही हो जाती हैँ जबकि एक इंसान स्वयं के जीवन में केवल धन – धन करते रहता हैँ और वो उस जन को भुला बैठता हैँ जो जन उसको हर समय साथ देता था या ये कहें कि इंसान उस जन को खो देता हैँ जो की उसका मुख्य हितैषी था आज का यह आर्टिकल लिखने को मन नहीं कर रहा हैँ,
सबों धन्यवाद

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