मेरी बात,खबरदार और होशियार मैं ही झरिया हूँ, लेखक सह पत्रकार अरुण कुमार
मेरी बात, ,,,,,, ,,मैं झरिया हूँ, कभी धुप कभी छाव और कभी बारिस यही हैँ मेरी बदनशीबी और बदकहानी, कहने को तो मैं एक कोल नगरी हूँ या ये कहे कि कोयला का काला हीरा का एक कमाऊ जगह भी मेरे पास ही हैँ किन्तु आज मैं अपनी अव्यवस्था पर खुद ही रो रहा हूँ शासन किया प्रशासन सभी मेरी अनदेखी करने में कोई भी कसर नहीं छोड़े हैँ आज मेरे गर्भ को छलनी कर कोयले को निकाला जा रहा हैँ वो दर्द और पीड़ा मैं स्वयं झेल रहा हूँ और इस कोयला की निकाशी के बाद पीछे छूट रहा हैँ एक कभी ना मिटने वाला निसान बड़े बड़े पहाड़, धूल खाते झरिया की जनता, बेरोजगारी का जीवन जीते यहाँ के युवा और जर्ज़र सड़क कौन हैँ दोषी और कौन हैँ मेरा गुनहगार किसी के पास कोई जवाब नहीं हैँ किन्तु अगर यही हाल रहा हैँ तो हमसब अपने आने वाली पीढ़ियों के लिए किया छोड़ कर जाएंगे यह बात अभी तक समझ से परे हो जाती हैँ या एक तुलना आप इसे अंधेर नगरी चौपट राजा वाला भी संज्ञा दे सकते हैँ, और जैसे गावों में एक कहावत बोली जाती हैँ कि नाच ना जाने आँगनवा टेढ़ा, जैसी कहावत यहाँ चरितार्थ हो जाती हैँ तो झरिया की भी यही बदनशीबी हैँ कि करे कोई और भरे कोई किन्तु अगर एक हल्की सी बारिस में ये हॉल झरिया का होगा तो फिर किया कहा जा सकता हैँ और किया भी किया जा सकता हैँ तभी तो मैं स्वयं में झरिया हूँ और मैं स्वयं अपनी बदनशीबी पर आज रो रहा हूँ ना ही मुझे कोई देखने वाला बचा हैँ और ना ही कोई समझने वाला सब राजनीती के चक्कर में पड़क मेरी पीड़ा को और बढ़ा रहे हैँ तभी तो मैं आज भी झरिया हूँ,,और अगर मेरी वर्तमान स्तिथि आज ऐसी हैँ तो भविष्य कैसी होगी यही सोचकर आज की मेरी यह पीड़ा और भी बढ़ कर दुःखदाई हो जाती हैँ और स्वयं को कोस कर पूछती हैँ कि किया मैं ही झरिया हूँ,,,,
लेखक सह पत्रकार अरुण कुमार

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