रानीगंज । रानीगंज के शैक्षणिक परिवेश को देखकर अनायास ही ऐसा महसूस होती है कि काले हीरे का शहर रानीगंज, जो कभी कला, संस्कृति और शिक्षा के क्षेत्र में अग्रणी था , आज वहाँ सघन अंधेरा फैला हुआ है, कोलकाता के पश्चात सम्भवत रानीगंज का तिलक पुस्तकालय जहाँ पाठकों के आवागमन से प्रत्येक शाम में गहमागहमी बनी रहती थी, वहाँ आज सन्नाटा पसरा हुआ रहता है, रेलवे प्लेटफार्म की किताब की दुकान से पत्रिकाएं गायब हो गई हैं। किताब की दुकान के नाम पर शहर में दो -तीन दुकानें हैं ,जहाँ दुकानदार ग्राहकों की आश लगाए बैठे रहते हैं। उन्हें किताबों के बजाय चटकारा बेचने में ज्यादा फायदा नजर आने लगा है।
ऐसा क्या हो गया इस शहर को ? इसे किसकी नजर लग गई ? एक सीधा-सीधा उत्तर समझ में आता है कि इंटरनेट की दुनिया ने किताबों की बिक्री पर रोक लगा दी है , क्या इंटरनेट इसके लिए जिम्मेदार है। जी हां बहुत हद तक यह बात सच है। लेकिन इंटरनेट की अपनी अहमियत है और किताबों की अपनी। कहने को तो हम यह बात अवश्य कह सकते हैं कि किताबों का विकल्प इंटरनेट नहीं हो सकता है। लेकिन वास्तविकता यह है कि वर्तमान इंटरनेट व्हाट्सएप फेसबुक जैसे सोशल मीडिया माध्यम इसके लिए जिम्मेदार अवश्य है।
इस शहर में कई बड़े -बड़े सीबीएसई एवं बंगाल बोर्ड की स्कूलें है,दो कॉलेजे है, कई इंजीनियरिंग से लेकर कंप्यूटर शिक्षा के संस्थानें है,हजारों की तादाद में छात्र -छात्रायें यहाँ इन शैक्षणिक संस्थानों में अध्ययन करते है, जाहिर सी बात है, उन्हें विद्याध्ययन के लिए पुस्तको की जरूरतें होती है,पर उन्हें अपने पसंद की पुस्तकें लेने के लिए या तो आसनसोल या दुर्गापुर जाना पड़ता है। इसका मूल कारण है इस शहर में पुस्तको का अभाव।
सीबीएसई बोर्ड के दाद्वश श्रेणी विज्ञान संकाय में इस वर्ष 98. प्रतिशत लाने वाले छात्रा रिया गुप्ता , आशीष कुमार का कहना है,की काफी तकलीफ होती है, जब हमें अपने शहर रानीगंज में किसी भी विषय के अच्छे लेखक की सहायक पुस्तकें नहीं मिलती है,मजबूरन आसनसोल,दुर्गापुर जानी पड़ती या फिर ऑनलाइन से पुस्तकें मंगानी पड़ती है, पर ऑनलाइन में यह समस्या है कि पुस्तक दुकान में पुस्तक अपने हाथों में लेकर पलट कर देखी जा सकती है,उसकी अनुभूति जो होती है, वह ऑनलाइन में कतई नहीं मिल सकती है।यह समस्या इस शहर में सिर्फ पाठ्य पुस्तकों तक ही सीमित नहीं है,अगर कोई व्यक्ति दूसरे शहर से किसी कार्य के लिए इस शहर में आते है, उन्हें होटल में ठहरना है,समय व्यतीत के लिए उन्हें कोई पत्रिका या अखबार की जरूरत दोपहर में हो,तो उन्हें इस शहर में खाक छाननी पड़ेगी.क्योंकि इतने बड़े शहर रानीगंज के रेलवे स्टेशन पर एक दुकान है,जिसमें दो चार ही अतरिक्त अखबार रहती है,जो लगभग दिन के 10 बजे तक समाप्त हो जाती है।
हिंदी के शिक्षक डॉ० रवि शंकर सिंह से शहर में पुस्तकें न मिल पाने की स्थिति में व्यथीत हो कर कहते है कि रानीगंज के परिवेश में फैलते हुए अंधकार को दूर करने के लिए एक दीप जलाने की जरूरत है,कम से कम एक अच्छी पुस्तक की दुकान अवश्य ही होनी चाहिए। त्रिवेणी देवी भालोटिया कॉलेज के पूर्व हिंदी विभागा अध्यक्ष डॉ० डीपी बरनवल कहते हैं कि ऐसा नहीं है कि यहाँ पुस्तकों की दुकान में नहीं थी अवश्य थे। लेकिन बदलते परिवेश के अनुकूल पुस्तक विक्रेता खड़ा नहीं हो पाए।
रानीगंज में पुस्तकें न मिल पाने के बारे में अति पुरानी पुस्तक दुकान विकास पुस्तक भंडार बुक डिपो के मालिक मदन त्रिवेदी जिनके दुकान में अब मात्र 10-15 वर्ष पुरानी किताबे ही दिखती है,उनका कहना है कि एक समय था जब इसी दुकान में ग्राहकों की पुस्तकें खरीदने के लिए लंबी लाइन लगा करती थी,दिन-प्रतिदिन पुस्तको की बिक्री कम होने के कारण पूंजी टूटती गयी, आज हालात यह है कि दुकान में रबर स्टाम्प एवं स्टेशनरी आदि बेचकर गुजारा चलाना पड़ता है। किताबों की बिक्री परतो मानव पिछले 2 वर्षों में और भी ग्रहण लग गया हो। इसका मुख्य कारण है कोरोनावायरस।
कूछ ऐसा ही कहना है राज बुक डिपो के मालिक शंभू झा का बताते है ऐसी स्थिती हमलोगों की नहीं थी,जब से सरकारी विद्यालयों में सरकार ने मुफ्त पुस्तकें देना शुरू किया है,एवं प्राइवेट स्कूलों में विद्यालय प्रबन्धन स्वयं प्रकाशक से किताबें लाकर बेचना शुरू किया है ,80 प्रतिशत तो विक्री वहीं समाप्त हो गयी,20 प्रतिशत की विक्री सहायक पुस्तकें, टेस्ट पेपर एवं पुस्तको के गाइड बुक बेचकर होती थी, कोरोना के कारण अब दो वर्षों से पुस्तकें ही नहीं छप रही है,तो पुस्तको की विक्री पूरी तरह से समाप्त हो गयी, अब सिर्फ दुकानदारों का समय व्यतीत हो रही है।
गुरुद्वारा गली में मौजूद राहुल पुस्तक भंडार के मालिक मृत्युंजय तिवारी का कहना है कि अब दुकान में पुस्तक खरीदने वाले ग्राहकों का लगभग आना ही बन्द हो गया है,अगर कोई ग्राहक आते है,पुस्तक का दाम पूछते है,10 प्रतिशत के डिस्काउंट देकर पुस्तक का दाम बताया हूँ,वह दुकान में खड़े खड़े मोबाइल निकाल कर ऑनलाइन में उसका दाम देखते है,जहाँ उसी पुस्तक को अधिक डिस्काउंट के आफर रहते है,अब ऐसी स्थिति में क्या वह ग्राहक दुकान से पुस्तक खरीदेंगे,सच तो यह कि अगर दुकान में कॉपी पेंसिल आदि न बेचा जाए तो परिवार चलाना मुश्किल हो जाये,उनका कहना है कि किताब दुकान से अच्छी तो सब्जी और फल बेचना है,कम से कम परिवार तो चल पायेगी।
तिवारी का कहना है कि उनके किताब दुकान खोले 20 वर्ष इस रानीगंज शहर में हो गये,इन 20 वर्षों में लगभग 100 कपड़े की दुकान,200 गल्ला की दुकान 50 हार्डवेयर आदि के दुकानें खुली, पर एक भी किताब की दुकान नहीं खुली,बल्कि कई दुकानें तो बन्द ही गयी।.रानीगंज में पुस्तक मेला के आयोजक सदस्य निर्मल झा का कहना है कि शिक्षा एवं संस्कृति के इस शहर में लगातार 30 वर्षों से पुस्तक मेला होते आई है,पर विगत चार वर्षों से यह पुस्तक मेला लगनी बन्द हो गयी, इसका मूल कारण पुस्तको की बिक्री न होने के कारण अच्छे पब्लिशर्स यहाँ स्टाॅल नहीं लगाना चाहते है,अब स्थिति यह ही गयी कि पुस्तक मेला में पुस्तक छोड़कर अन्य वस्तुएँ जैसे खिलौना ,कपड़े की दुकान,आदि इस पुस्तक मेला में शामिल हो गयी है,यह इस अंचल के लिए काफी चिंताजनक स्थिति है। पुस्तको के इस स्थिति के बारे में रानीगंज चैम्बर ऑफ कॉमर्स के सलाहकार राजेन्द्र प्रसाद खेतान चिंता जाहिर करते हुए कहते है,की रानीगंज जैसै अति प्राचीन शहर में ढंग की कोई पुस्तक दुकान न होना वास्तव में दुःख का विषय है,उनका कहना है कि नई पुस्तक की दुकान खोलने के बजाय जो पुरानी किताबे की दुकान है,उनके मालिक रानीगंज चैम्बर ऑफ कॉमर्स से सम्पर्क करें,चैम्बर उन दुकानदारों के पूंजी की व्यवस्था के लिए बैंकों से बात करके उन्हें मुद्रा लोन दिलाएगी,ताकि इन पुस्तक विक्रेताओं की माली हालत तो सुधरे,वहीं छात्रों तथा इस शहर के लोगों को उनकी मनपसन्द पुस्तकें भी मिल सकेगी।