पश्चिम बंगाल पंचायत चुनाव में विरोधी विहीन जीत के लिए उल्लासित तृणमूल प्रार्थियों को बड़ा झटका देते हुए सुप्रीम कोर्ट ने 14 मई को होने वाले पंचायत चुनाव तो जारी रखी है लेकिन निर्विरोध जीत का दावा करने वाले 18,000 प्रार्थियों के नतीजों पर रोक लगा दी है। यह राज्य चुनाव आयोग के साथ-साथ राज्य सरकार और सत्ताधारी तृणमूल के लिए भी बड़ा झटका है। इससे पहले कोलकाता उच्च अदालत की डिवीजन बेंच ने नामांकन नहीं कर पा रहे प्रार्थियों को ई मेल से नामांकन करने का आदेश दिया था जिसके विरोध में राज्य चुनाव आयोग सुप्रीम कोर्ट गयी थी। सुप्रीम कोर्ट ने ई-मेल से भेजे गए नामांकन पर तो रोक लगा दी पर साथ ही निर्विरोध जीत रहे प्रार्थियों की ख़ुशी पर भी रोक लगाते हुए अगले आदेश तक उनके जीत के नतीजे घोषित करने पर भी रोक लगा दी। इससे पहले 1 3 और 5 मई को राज्य में पंचायत चुनाव की तारीख तय की गयी थी लेकिन विरोधी पक्ष को नामांकन नहीं करने देने की लगातार आ रही खबरों के बीच कोलकाता उच्च अदालत ने उक्त तारीख पर होने वाले चुनाव पर रोक लगा दी एवं नामांकन के लिए एक और दिन देने का आदेश जारी किया उसके बाद भी विरोधी पक्ष को कई जगहों पर नामांकन नहीं करने दिया गया। विपक्षी पार्टियों की गुहार पर कोलकाता उच्च अदालत की डिवीजन बेंच ने ई मेल से नामांकन करने का आदेश जारी किया जिसके खिलाफ राज्य चुनाव आयोग सुप्रीम कोर्ट गयी थी जहाँ सुप्रीम कोर्ट ने निर्विरोध जीत रहे प्रार्थियों की जीत पर रोक लगा दी। सुप्रीम कोर्ट ने राज्य सरकार को आदेश दिया है कि वो निष्पक्ष और शांतिपूर्वक चुनाव संपन्न कराये। अब देखना है कि राज्य सरकार कोर्ट के इस आदेश पर कितना अमल करती है। चुनाव नामांकन में जिस तरह से सरकारी मशीनरी की निष्क्रियता देखी गयी है उससे तो इस बात की बहुत कम संभावना है कि 14 मई को होने वाले पंचायत चुनाव निष्पक्ष और शांतिप्रिय होंगे फिर भी अदालत के आदेश ने इतनी उम्मीद तो जरूर जगाई है कि अराजकता के गहरे अन्धकार को भी उम्मीद की किरण चीर सकती है।
सुप्रीम अदालत जागती है उम्मीद
बिना विपक्ष के लोकतंत्र का कोई मतलब नहीं है और ऐसी जीत का भी कोई मतलब नहीं लेकिन सत्ताधारी पार्टियां अक्सर इस बात को भूल जाती है और वह लगातार विपक्ष को समाप्त करने पर तुली रहती है । यह बात केवल पश्चिम बंगाल की सत्ताधारी पार्टी पर ही लागू नहीं है बल्कि इससे पहले की सभी राज्य तथा केंद्र की सत्ताधारी पार्टियों पर भी लागु होती है और निकट भविष्य में यह परिपाटी समाप्त होने की कोई उम्मीद भी नहीं दिखती है। इन सबके बीच समय-समय पर सुप्रीम अदालत इस बात का एहसास जरूर कराती है कि लोकतंत्र के रक्षक अभी माजूद हैं।