आसनसोल। पश्चिम बंगाल में अधौगिक कल कारखानों के नाम से जाना और पहचाने जाने वाला आसनसोल विकास के क्षेत्र में किसी भी जिले से पीछे नहीं है। पश्चिम बंगाल की राजधानी कोलकाता के बाद पश्चिम बर्द्धमान जिले का आसनसोल एक ऐसा शहर है, जो समय के साथ-साथ हर क्षेत्र में तेजी से विकसित हुआ है, पर इसी विकास के बीच यहाँ की यातायात के साधन के लिये इस्तेमाल होने वाली वर्षों पुरानी रिक्शा अब लगभग विलुप्त होने के कगार पर पहुँच चुकी है। शिल्पाँचल के रेलवे स्टेशन, बस स्टैंड, बस स्टॉप के साथ-साथ गलियों और चौक-चौराहों पर दिखने वाली रिकशें अब गायब हो चुकी हैं। कभी कदार रेलवे व बस स्टैंड के बाहर एक दो रिक्शा चालक नजर भी आ जाते हैं। तो वह अपनी बर्बादी की गाथा गाते नहीं थकते।
वो कहते हैं एक समय था जब वह इसी रिक्शा को चलाकर खुदके व खुदके परिवार का बहुत ही अच्छे तरह से भरण पोषण कर लेते थे। साथ ही उसमें से भी कुछ पैसे भी बचा लेते थे।जो पैशे इनके बुरे वक्तों में काम आते थे। पर अब आलम यह है। के सवारियों के इंतजार में पूरे दिन बैठने के बाद भी कोई सवारी इनको देखना तो दूर की बात इनकी बिगड़ी हालात के बारे में जानना तक पसंद नहीं करते और अपना मुँह फेरकर किसी टोटो या फिर ऑटो में बैठकर चले जाते हैं। वो कहते हैं के एक समय था।
जब रिक्शा का काफी चलन था। और पैशे कमाने के लिये इस रिक्शे के धंधे के आगे सभी धंधे फेल थे। पर इन्हें यह नहीं मालूम था। के ज्यादा पैशे कमाने का उनका वह जरिया आगे के भविष्य के लिये इतना बड़ा अभिशाप बन जाएगा यह उन्होंने कभी सोंचा भी नहीं था। आज उनका धंधा उनके व उनके परिवार के लिये उनके जीवन का सबसे बड़ा अभिशाप बन गया है। आज सवारियों की भारी कमी के कारण शिल्पाँचल के रिक्शा चालक व उनका परिवार भूखमरी के कगार पर पहुँच चुके हैं। उनको खुदके व खुदके परिजनों के भरण पोषण के लिये दिहाड़ी मजदूरी करनी पड़ रही है, वो कहते हैं के शिल्पाँचल में टोटो और ऑटो की तेजी से बढ़ोत्तरी हुई है। और उसी बढ़ोत्तरी ने उनका वर्षों पुराना रोजगार व उनके जीने का वो सहारा छीन लिया है। जिस सहारे की वह अपने मुछ की ताव पर गुमान किया करते थे। वो कहते हैं। के एक समय यह भी था। के बस और ट्रेन से जैसे ही यात्री उत्तर कर बाहर आते थे। तब उनके मुँह से एक ही आवाज आती थी। रिक्शा-रिक्शा व रिक्शा यह सुनकर उनको बहुत अच्छा लगता था। के उनको भी पुकारने वाला कोई है। चाहे वह कोई यात्री ही क्यों नहीं सवारी ले जाते समय कभी-कभी सामान ज्यादा होने के कारण ऊंचाईयों पर जब रिक्शा नहीं चढ़ती थी तब सवारी खुद उतरकर धक्का देते थे। और रिक्शा को आगे बढ़ाने में उनकी मदद करते थे।
चंद मिनटों के रास्ते में ही सवारियों व उनके बीच एक अलग ही रिश्ता बन जाता था, पर वर्षों पुराना रिश्ता आज उन्हें ढूंढे नहीं मिलता ऐसे में शिल्पाँचल में बचे चंद रिक्शा चालकों ने जिला प्रशासन व राज्य सरकार से यह मांग की है के समाज में उनकी भी एक पहचान मिले उनको भी जीने का हक मिले और सरकार व प्रशासन मिलकर एक ऐसी योजना बनाए के उस योजना के तहत सबको रोजगार मिले चाहे वह रिक्सा चालक हों। चाहे वह टोटो व ऑटो चालक हों। उनको एक रूट दे दिया जाए जिस रूट पर वह अपने वाहन चलाएँ जिससे सभी को रोजगार मिल पाएगा। और सभी के घर चूल्हे जल सकेंगे। कोई भी भूखा पेट नहीं सोएगा।