मुहर्रम का इतिहास : एक परिचय

मुहर्रम में लाठियां भाँजते श्रद्धालु

प्रिय मित्रों, आप हर वर्ष मुहर्रम और चेहल्लुम में मजलिसे होते जुलूस उठते लोगों को मातम करते और रोते देखते हैं। अपने भारतवर्ष में यह परंपरा सैकड़ों वर्षों से चली आ रही है। आप में से बहुत से लोग यह जानते होंगे कि यह हजरत इमाम हुसैन की शहादत की याद मनाई जा रही है।

हजरत इमाम हुसैन इस्लाम धर्म के पैगंबर हजरत मोहम्मद साहब के छोटे नाती थे और उनकी शहादत आज से कोई 14 सौ वर्ष पूर्व, आतंक का प्रतिरोध करते हुए, अपने 71 साथियों व परिवार जनों के साथ, जिन में छः महीने का शिशु भी था, इराक की मरूभूमि पर हुई थी। इसी जगह आज कर्बला नगर आबाद है जहाँ उनकी समाधि स्थित है।

आपके मन में अवश्य ही यह जानने की जिज्ञासा होती होगी कि आखिर इमाम हुसैन की शहादत किस कारण से हुई थी? उनका पैगाम क्या था? और यह आज इतने दिनों बाद भी विश्व भर में उनकी शहादत की याद इतने जोर शोर से क्यों मनाई जाती है? आखिर हुसैन का पैगाम था क्या? आखिर वह लोग कौन थे जिन्होंने हुसैन को शहीद किया होगा? आखिर दोनों के बीच द्वंद किस बात का था?

तो आइए मैं बहुत ही संक्षेप में कुछ बातें आपके सामने प्रस्तुत करता हूँ और आशा करता हूँ कि इससे आपके समक्ष वह धरातल बन जाएगी जिसके आधार पर आप हुसैन और हुसैनियत के बारे में अधिक जानकारी स्वयं ही प्राप्त कर सकेंगे। और आज के युग में तो कोई भी जानकारी प्राप्त करना बहुत ही सहज और सरल है। यदि आप किसी भी इनसाइक्लोपीडिया जैसे विकिपीडिया पर इमाम हुसैन के बारे में सूचना तलाश करें तो आपको ढेर सारी सूचनाएं विस्तार के साथ मिल जाएँगे और साथ ही वह ओरिजिनल स्रोत ग्रन्थ भी मिल जाएँगे जो बड़े-बड़े विद्वानों ने उनके बारे में लिखे है तथा इतिहासकारों की उनके विषय में जो राय रही है वह भी मालूम हो जाए गी। यदि आप गौर से देखेंगे तो आपको यह भी पता चल जाएगा कि हुसैन की शहादत मानवता के लिए जितनी प्रसांगिक कल थी उतनी ही आज भी है बल्कि शायद आज बढ़ते हुए अत्याचार, लोभ लालच, दमन, कमजोरों के शोषण जैसी दुर्भाग्यपूर्ण घटनाएं ओर बढ़ती आतंकी वारदातें, यह सब इस ओर इशारा करती हैं कि हुसैन जैसे महापुरुषों के विचार अत्यंत आवश्यक हो गए हैं। और हमारे लिए जरूरी है कि हम उन का स्मरण लगातार करते रहें तथा उनकी दी हुई सीख से दुनिया में क्रूरता, आतंक, लालच, एक दूसरे से दुश्मनी, किसी के ऊपर दमनकारी प्रभाव डालने की प्रवृत्ति, आदि से हमेशा अपने को भी मुक्त रख सकें और मानव जाति के कल्याण की राह भी स्पष्ट कर सकें।

इस्लाम धर्म की शिक्षा अरब की मरुभूमि में दी गई थी यदि आप इस्लाम पूर्व अरब का इतिहास तथा भूगोल देखेंगे तो आपको पता चलेगा की यह भूभाग अत्यंत शुष्क एवं गर्म वातावरण का रेगिस्तानी इलाका था जिसमें दूर-दूर तक हरियाली का नाम निशान भी नहीं दिखाई देता था। अरब के वासी कबायली जिंदगी के आदि थे वह अपने वंश के आधार पर विभिन्न कबीलों में विभाजित थे और उनकी कोई एक सुव्यवस्थित राजनीतिक अथवा सामाजिक संरचना नहीं थी। एक तरह से कह सकते हैं कि यह सारे कबीले एक जंगल के कानून के तहत अपना जीवन व्यापन करते थे। इन कबीलों में एक दूसरे से लड़ना झगड़ना, एक लड़ाई को कई कई पीढ़ियों तक एक के बाद एक से इंतकाम के आधार पर चलाते रहना, जिसमें बड़े-बड़े रक्तपात होते रहते थे, आम बात थी। इन लोगों के आपस में लेन-देन तथा व्यापार इत्यदि का एक ही केंद्र था और वह केंद्र था काबे का नगर मक्का। काबा वह पूजा स्थल, जिसे इब्राहिम पैगंबर (1813-1644 ईसा पूर्व) ने अपने पुत्र इस्माईल पैगंबर के साथ मिलकर बनाया था। इब्राहिम पैगंबर एकेश्वरवाद के सबल प्रचारक थे उनका मानना था कि सारे जगत को केवल एक शक्ति ने बनाया है, जो अदृश्य है, अमूरत है और जो करुणा वान है। अतः इंसानों के लिए यह उचित नहीं है कि वह उन शक्तियों की पूजा करने लगे जिनसे वह भयभीत हो जाते हैं और इसी श्रेणी में वह राजा रजवाड़े और दूसरे शक्तिशाली लोग आते थे जो इंसानों को अपनी शक्ती से भयभीत करा कर उनका शोषण करने हेतु उनसे अपनी भक्ति तथा पूजा करवाया करते थे, जैसे बाबुल का मशहूर राजा नमरूद, जहाँ इब्राहिम रहते थे। इब्राहिम के विचार के कारण उस जमाने के राजा तथा स्थापित व्यवस्थाएं उनकी दुश्मन हो गईं। इब्राहिम अकेले थे वह अपने पुत्र और पत्नी को अरब देश में मक्के की भूमि पर छोड़ के चले आए। उस समय इस्माइल एक ननहे बालक मात्र थे। इस्माइल प्यासे थे थभी जब वे प्यास से रेती पर अपनी एड़ियाँ रगड़ रहे थे तो उनकी एड़ियों के नीचे से पानी का स्त्रोत उबल पड़ा। पानी उस मरुभूमि में अत्यंत मूल्यवान वस्तु थी। कहते हैं उसी समय कुछ व्यापारियों का प्यासा काफिला वहाँ पहुँचा और उन्होंने इस्माईल की माता से आग्रह किया कि वे इस चश्मे से उन्हें भी लाभान्वित होने दें और वे बसना चाहते हैं और इस्माइल के नेतृत्व में अपना जीवन व्यापन करना पसंद करेंगे। मक्के में वह जल स्रोत आज भी मौजूद है जिसे जमजम कहते हैं।

इस तरह से मक्का शहर की शुरूआत हुई। मक्का जहाँ काबा है जहाँ दुनियाभर के करोड़ो यात्री आज भी हर साल इस्माइल की याद मनाने के लिए हज करने को जाते हैं। मक्के की भौगोलिक स्थिति कुछ इस प्रकार से थी के आसपास की बस्तियों से आने वाले व्यापारिक रास्ते इसी स्थान पर एक दूसरे से मिलते थे। जल्दी ही इब्राहिम और इस्माइल का बनाया हुआ काबा एक सुप्रसिद्ध एवं लोकप्रिय पूजा स्थल बन गया जहाँ साल में एक बार एक बड़ा मेला लगने लगा जिस का एक उद्देश्य यह भी था कि सभी कबीले इस शान्ति पूर्ण माहौल में व्यापार कर सकें।

परंतु धीरे-धीरे विभिन्न क्षेत्रों से आने वाले लोगों ने अपनी आस्था एवं शक्ति के प्रतीक के रूप में काबे में भी मूर्तियाँ स्थापित करनी शुरू कीं और काबे में होने वाली पूजा को बजाय ईश्वर की श्रद्धा के आपस में शक्ति प्रदर्शन का स्थान बना लिया गया। परिणाम स्वरुप ऐसी कुरीतियाँ जनमीं जिनमें हर कबीले का अहंकार ही उसके लिये बड़ा होता था मानवता का कोई खास मतलब उनकी नजर में नहीं था। अरब का इतिहास पढ़ कर देखें उनके लिए शादी विवाह करने के लिए दूसरे कबीले की लड़कियों को जबरन उठा लाना अच्छी बात समझी जाती थी और अपने कबीले में कोई लड़की ना रहे इसलिए कन्याओं को पैदा होते ही जिंदा दफन कर दिया जाता था।

इसी माहौल में मोहम्मद साहब का जन्म हुआ। उनको रक्त पात, आपसी लड़ाई झगड़े, महिलाओं और लड़कियों के प्रति क्रूरता, इत्यादि बिल्कुल अच्छे नहीं लगते थे अतः उन्होंने इब्राहिम और इस्माइल के संदेश को पुनः फैलाना शुरू किया। ऐसा किया जाना मक्के के शक्तिशाली व्यक्तियों को खलने लगा उनको लगा, यदि यह शक्ति व्यवस्था बिगड़ गई तो फिर उनका वर्चस्व बना रहना मुश्किल हो जाएगा और इस कारण से उन्होंने मोहम्मद साहब का विरोध करना शुरू कर दिया। उनका विरोध करने वालों में सबसे बढ़ चढ़कर स्वयं मक्के में उनके ही कबीले के लोग थे जैसे अबू लहब, अबू सुफ़ियान तथा इन की पत्नियां, इत्यादि; जो धनवान थे और जिन्हें मक्के में काबे के पूजा स्थल पर लोगों के एकत्रित होने से लाभ हुआ करता था। यह अर्थव्यवस्था दास प्रथा पर आधारित थी और मोहम्मद साहब दासों के भी मसीहा और तरफदार थे। अधिकांश बाहुबली, धनवान तथा शक्तिशाली लोगों को इन कारणों से उनसे भय महसूस होने लगा। अंततः उन्होंने मक्के को तिलांजलि दी और मदीने वालों के बुलावे पर वहाँ चले गए तथा उस नगर को अपना केंद्र बना लिया। मोहम्मद साहब ने ईश्वर का यह पैगाम कि दुनिया के सभी मानव सिर्फ एक ईश्वर की सृष्टि हैं और एक ईश्वर की सृष्टि होने के कारण आपस में भाई-भाई हैं उनमें शत्रुता कतई मुनासिब नहीं है एक दूसरे की भलाई होनी चाहिए ईमानदारी से काम होने चाहिए किसी भी इन्सान को किसी अन्य व्यक्ति का दमन शोषण करने का कोई अधिकार नहीं है सरीखी अपनी शिक्षा का प्रचार शुरू किया। यह बात मक्के के अहंकारी बलवान लोगों को बिल्कुल भी पसंद नहीं आई वे लोग मोहम्मद साहब के मुखालिफत करते रहे। दूसरी ओर जो कमजोर लोग थे, जो गुलाम वर्ग था जो शोषित थे वह उनके पास उनसे सीख लेने आने लगे।

मक्के वाले इन के विरुद्ध तरह-तरह की साजिश करते रहे इन पर तरह-तरह के हमले होते रहे मगर आखिरकार मक्के वालों ने मोहम्मद साहब के सामने हथियार डाल दिए जिसकी वजह यह थी कि दुनिया में आसपास चारों ओर लोग मोहम्मद साहब के पैगाम से प्रभावित होकर उनके भक्त हो गए थे। मक्के वाले बिल्कुल अकेले पड़ चुके थे। खास बात यह है मक्के को जीतने के लिये मोहम्मद साहब ने तलवार नहीं चलाई। जंग नहीं हुई। न केवल यह बल्कि मक्के में स्थापित होने के बाद मोहम्मद साहब ने अपनी दुश्मनी करने वाले लोगों को भी आम क्षमादान कर दिया और कहा कि सबकी पुराने कुसूर माफ़ किए जाते हैं किसी को भी डरने की जरूरत नहीं है।

समय बीता। मोहम्मद साहब का देहांत हो गया। उनके देहांत के उपरांत धीरे-धीरे अब उनका नाम लेने वाले शक्तिशाली लोगों को लगा कि वे इसी परचम के नीचे इकट्ठे होकर खुद इस की ही आङ में पुनः शक्ति और दमन शोषण का तांडव कर सकते हैं। तरह-तरह की दबंगी की प्रवृत्तियाँ पुनः जागने लगी यहाँ तक की मोहम्मद साहब के मक्के से मदीने आने के 60 वें वर्ष में एक ऐसा व्यक्ति इस्लाम में राजा बन बैठा जो कि मोहम्मद साहब के पिछले समय के सबसे बड़े शत्रु का पौत्र था। उसकी दादी मक्के की दैत्य प्रवृत्ति वाली नारी थी जिसने मोहम्मद साहब के चाचा का अपने गुलाम द्वारा वध कराने के पश्चात स्वयं अपने हाथों से उनका पेट फाड़कर कलेजा निकाला था और उनके कलेजे को अपने दांतों से चबाकर खाया था। यही नहीं उसने हर प्रकार के शोषण और दमन की नीतियों को आम कर रखा था। उस का नाम था यजीद! उसकी राजधानी शाम (Syria) देश के दमिश्क नगर में थी। वह अपने समय का सुपर पावर था। उसका राज पाट मिस्र से अफगानिस्तान और मध्य एशिया तक फैला हुआ था!

जब वह राज सिंहासन पर काबिज हुआ तो उसने मदीने में शांति पूर्ण तथा अलग-थलग रह रहे मोहम्मद साहब के छोटे नाती इमाम हुसैन को यह पैगाम भेजा कि वह उसे अपनी मान्यता प्रदान करदें। हुसैन यदि उस को अपनी मान्यता प्रदान कर देते तो सारी दुनिया वाले आज यही कहा करते कि मोहम्मद का पैगाम तो था जो यजीद और यजीद जैसे राजाओं ने करके दिखाया। (भूलवश जो लोग हुसैन को नहीं जानते हैं वह अभी भी इस तरीके के तथाकथित अनेक मुस्लिम राजाओं व आतंक के पुजारियों के काले कारनामों की बुनियाद पर ऐसा कह देते हैं कि इस्लाम तो बर्बरता का इतिहास है।) पर सच तो यह है कि इस यजीदी शैली का मुहम्मद साहब के पैगाम से कुछ सरोकार नहीं है।

हुसैन ने इस प्रस्ताव को साफ-साफ यह कहकर ठुकरा दिया कि मेरे जैसे यजीद जैसों को मान्यता नहीं देते हैं! यदि हम हुसैन के इस वाक्य का गहराई से मंथन करें तो हमें मालुम हो जाएगा कि हुसैन बता रहे थे कि मनुष्यों में दो प्रकार के मनुष्य होते हैं, एक हुसैन जैसे और दूसरे यजीद जैसे। हुसैन ने केवल इतना ही नहीं कहा कि वे यजीद को मान्यता नहीं देंगे, वरन् उन्होंने कहा कि उनके जैसे यजीद के जैसों को मान्यता नहीं देते हैं। अतः हुसैन के अनुसार यह एक अटूट सत्य एवं नियम है कि उनकी श्रेणी के लोगों ने कभी भी यजीद सरीखे लोगों को मान्यता ना तो दी है ना ही देंगे।

इसके बाद इमाम हुसैन मक्के की ओर प्रस्थान कर गए। मक्के में रुक कर वह लोगों के बीच असल पैगाम की शिक्षा देने में व्यस्त थे कि तभी इराक में स्थित कूफा नगर के वासियों को यह पता चला कि इमाम हुसैन ने यजीद को मान्यता देने से साफ मना कर दिया है। जनता पहले ही यजीद के शासन की ना इनसाफियों से त्रस्त थी अतः बहुत से कूफा वासियों ने इमाम हुसैन को पत्र लिखने शुरू किए कि आप कूफा पधारें और हमें यजीद के आतंकी व दमनकारी प्रभाव से मुक्ति दिलाएं। शुरू में तो इमाम हुसैन ने उनके निमंत्रण को स्वीकार नहीं किया पर जब उनकी ओर से इसरार बढ़ता गया यहाँ तक कि उन्होंने लिखा कि यदि आपने हमारी सहायता नहीं कि तो हम क़यामत के दिन ईश्वर के सामने आपके नाना मोहम्मद साहब से शिकायत करेंगे कि हम असहाय लोग आप के नाती को अपनी मदद के लिए बुला रहे थे पर वह नहीं पधारे, तो इमाम हुसैन ने अपने चचेरे भाई मुस्लिम को अपना दूत बनाकर कूफा भेज दिया। मुस्लिम जब कूफा पहुँचे तो वहाँ के लोगों ने उनका बहुत बड़े पैमाने पर स्वागत किया जिस से प्रभावित होकर मुस्लिम ने अपने भाई इमाम हुसैन को पत्र लिख दिया कि नगर के लोग आपके साथ हैं अतः आप यहाँ पधारें। इमाम हुसैन मक्के से कूफे की ओर चल पड़े। इसी बीच यजीद ने पड़ोस के नगर बसरा में अपने प्रतिनिधि को जिसका नाम इब्ने ज्याद था और जो अत्यन्त धूरत एवं क्रूर सवभाव का व्यक्ति था कूफे का भी चार्ज सौंप दिया और उसे आदेश दिया कि किसी भी प्रकार से हुसैन को कूफे में ना आने दे और या तो उनसे यजीद के पक्ष में मान्यता प्राप्त करे या उनका वध करके उनके सभी परिवारजनों को बंदी बनाकर यजीद के पास दमिश्क भेज दे।

उसने कूफा के नागरिकों को भय एवं लोभ दिखाकर हुसैन से विचलित कर दिया। मुस्लिम अकेले पड़ गए तथा धोखे से कैद कर लिए गए जिसके बाद उन्हें राजभवन की छत से नीचे गिरा कर शहीद कर दिया गया।
फिर इब्ने ज्याद ने कूफे के एक अत्यंत महत्त्वाकांक्षी व्यक्ति इब्ने साद को भड़काकर व ईरान की गवर्नरी दिलाने का झूठा प्रलोभन दे कर एक बड़ी सेना तैयार करवाई और इमाम हुसैन को साथियों सहित कूफे के रास्ते में ही फुरात नदी की अलक़मा नहर के किनारे के रेगिस्तान में उतरने पर मजबूर कर दिया। इब्ने साद की सेना वाले इमाम हुसैन पर बराबर यह दबाव डालते रहे कि वे यजीद को मान्यता दे दें अन्यथा उनका बद्ध कर दिया जाएगा परंतु हुसैन अपने कथन पर अडिग रहे। वह शांति की राहें तलाश करने के लिए बहुत सारे प्रस्ताव देते रहे जैसे यह कि यदि अब कूफे वालों को उनका आना पसंद न हो तो वह वापस वहाँ चले जाएँगे जहाँ से आए हैं, अथवा वे यजीद के राज की सीमाओं के बाहर कहीं भी अपना ठीकाना बना लेंगे, इत्यादि। परंतु इब्ने ज्याद को इनमें से कोई भी प्रस्ताव पसंद नहीं आया।

अरब वर्ष के पहले महीने, मुहर्रम की नवी तारीख थी जब उसका स्पष्ट आदेश इब्ने साद को मिला कि यदि हुसैन मान्यता देने तैयार नहीं है तो उन पर आक्रमण करो उनको और उनके साथियों को कत्ल कर दो और उनके घर वालों को बंदी बनाकर ले आओ। 10 मुहर्रम सन् 61 हिजरी (10 अक्टूबर सन् 680 ई) को सुबह सुबह यजीद की फौज ने हुसैन के शिविर पर हमला कर दिया। ज्ञातव्य रहे कि हुसैन के साथ शहीद होने वाले कुल लोगों की संख्या केवल 72 थी जिनमें 6 माह का शिशु भी शामिल था और अत्यंत बुजुर्ग भी। अर्थात जो लोग अपने बचाव में युद्ध कर पाए होंगे उनकी संख्या 65 -70 के आस-पास ही मानी जा सकती है। दूसरी ओर इब्ने साद के साथ आई सेना की तादाद विभिन्न इतिहासकारों ने विभिन्न विभिन्न लिखी है मगर आमतौर पर जिस संख्या को सबसे ज्यादा माना जाता है और जो तर्क के सबसे नजदीक है वह है 30, 000 सशस्त्र सुसज्जित सैनिक। यह भी याद रहे के हुसैन के शिविर में पानी ले जाना इब्ने साद की सेना ने 7 मुहर्रम से, अर्थात हुसैन की शहादत के 3 दिन पहले से ही, बंद कर रखा था। हुसैन के साथ महिलायेंं भी थी परिवार के बच्चे भी थे वह सब प्यासे थे परंतु उनमें से किसी का मनोबल नहीं टूटा। हुसैन शहीद कर दिए गए उनके साथी शहीद कर दिए गए उनके शिविर में आग लगा दी गई और उनके घर के सभी लोगों को जिनमें महिलायेंँ और उनके एक पुत्र जो उस दिन अत्यंत बीमार होने के कारण शिविर में ही बेहोशी में लेटे रहे थे और मैदान में नहीं आ सके थे, शामिल थे बंदी बना लिया गया। यह काफिला दूसरे दिन कूफे पहुँचा परंतु वहाँ की महिलायेंँ, बच्चे, और पुरुष ये हालात देखकर रोने लगे। इब्ने ज्याद ने इस लुटे काफिले को दमिश्क की ओर रवाना कर दिया। उसे इस बात का आभास हो चुका था कि लोगों तक जब यह समाचार पहुँचेगा तो यजीद की हुकूमत को घोर लोक क्रोध का सामना करना पड़ेगा। उसको यह भी डर था कि कूफे से दमिश्क के रास्ते में दूसरे लोग, आम जनता, कहीं ना कहीं बगावत कर सकते हैं और उस के सिपाहियों को पराजित करके हुसैन के परिवार को मुक्त करा ले सकते हैं। अतः उसने लंबे, अग्यात, टेढ़े-मेढ़े रास्तों से इस काफिले को दमिश्क की ओर भेज दिया।

खास बात यह है कि जब दमिश्क में यजीद के दरबार में हुसैन का लुटा हुआ परिवार पहुँचा उस समय यजीद शक्ति के नशे में चूर सजे दरबार में बैठा अनाप-शनाप अहंकारी बातें बकता चला जा रहा था परंतु उसी समय हुसैन की बहन जैनब ने और हुसैन के पुत्र जैनुल आबदीन ने खड़े होकर वक्तव्य दिया, अपना परिचय कराया और यह बताया कि इमाम हुसैन का कत्ल और नरसंहार केवल इस कारण किया गया है कि उन्होंने यजीद को मान्यता देने से इनकार कर दिया था। अगरचे यजीद ने इन लोगों को कारागार में डाल दिया परंतु धीरे-धीरे यह समाचार फैलता चला गया और लोगों में क्रोध बढ़ने लगा। यजीद घबरा गया और उसने 1 साल के बाद ही इन सब लोगों को रिहा कर दिया और यह पूछा कि क्या वे शाम में रुकना पसंद करेंगे या वापस मदीने जाना चाहेंगे हुसैन की बहन ने कुछ दिनों के लिए शाम में रुकने की इच्छा जताई और वहाँ उन्होंने शोक सभा के इंतजाम की बात कही जिसे यजीद ने अपनी राजनीतिक मजबूरी के चलते तुरंत मान लिया, ताकि वह जनता के सामने अपने इस जघन्य अपराध का कलंक कुछ धूल सके।

जैनब की इन शोक सभाओं से ही आज के मजलिस मातम की नींव पङी जिस के माध्यम से शाम और आसपास की महिलाओं में हुसैन का पैगाम फैलता चला गया कुछ दिनों बाद जैनब कर्बला के रास्ते मदीने चली गईं परंतु यजीद के मरते ही उसके विरुद्ध पूरे अरब जगत में एक क्रोध की लहर उठ खड़ी हुई और अगरचे उस क्रोध की लहर को यजीद के उत्तराधिकारीयो ने सैन्य बल द्वारा दबा दिया और हुकूमत उसी प्रकार चलती रही जैसे यजीद के जमाने में चलती थी परंतु फिर किसी राजा की हिम्मत नहीं पड़ी कि हुसैन के वंशजों में से किसी से मान्यता की मांग कर सके। जिस रोज जैनब का काफिला शाम से वापसी में कर्बला पहुँचा वह सफ़र महीने की 20 तारीख थी और इसी की याद में आज प्रतिवर्ष सफ़र की 20 तारीख को चेहल्लुम मनाया जाता है।

हुसैन के वंश के लोगों ने यह स्वीकार किया कि वे शांतिपूर्वक अपने घरों में अपने स्कूलों में बैठकर लोगों को सच्चाई की शिक्षा दें तथा मुसलमानों की राजनीतिक होङ से अलग हो कर रहे।

आज के विज्ञान जगत में, मधय काल के जिन बड़े-बड़े मुस्लिम वैज्ञानिकों का नाम सादर लिया जाता है जैसे रसायन एवं चिकित्सा विद अबु मूसा जाबिर बिन हय्यान, इत्यादि, वे इमाम हुसैन के महा पौत्र इमाम जाफर सादिक के शिष्य थे। इस प्रकार हुसैन ने अपनी कुर्बानी देकर दुनिया के सामने इस्लाम के असली चेहरे को क्रूर आतंकी राजाओं के चेहरे से बिल्कुल स्पष्ट अलग पहचनवा दिया। तथाकथित मुस्लिम राजा तरह-तरह के अन्याय करते रहे इसमें कोई दो राय नहीं। उनमें से कईयों के लिए तो अपने सगे भाई की हत्या कर देना भी जायज और सराहनीय कार्य था। परंतु दूसरी ओर मोहम्मद साहब के असल पैगाम की मशाल हुसैन और हुसैनियत की शरण में प्रज्वलित रही तथा मानवता को सदा प्रकाश बाँटती रही। आइए हम मिलकर बोलें मोहम्मद साहब की जय जयकार इमाम हुसैन की जय जय कार। धन्यवाद। जय हिंद।

मसूद रिजवी
(लेखक: “टाइटनिगं नूज़ ऑफ़ पावरटी”)
20 सफ़र 1440 हि0
30 अक्टूबर 2018 ई0
ईमेल: [email protected]
ट्विटर: @RezviMasood


रिजवान रजा (नई दिल्ली )

Last updated: अक्टूबर 31st, 2018 by Central Desk - Monday Morning News Network

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