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वर्तमान सरकार की कृषि नीतियों से बदहाल हुये हैं देश के किसान : रिजवान रजा

एक किसान आंदोलन में शामिल रिजवान रजा (मध्य में )

आज कृषि की दो ही मुख्य समस्याएं हैं पहली किसानों की बढ़ती ऋणग्रस्तता और दूसरी कृषि उपज का लाभदायक मूल्य ना मिलना जिसके कारण भारत की कृषि व्यस्था पूरी तरह से चरमरा गई है। मैं अपनी बात इन्हीं दो विषयों पर केंद्रित रखूंगा

सरकार कर्ज बाँटने से कमाई कर रही है

सरकार आज स्वंय एक साहूकार के रूप में काम कर रही है, हम पिछले दो तीन साल के आंकडे देखें तो हमें पता चलता है कि साल 2014 – 15 में सरकार ने 8.45 लाख करोड़ का लोन बाँटा था . वर्ष 2015-16 में 8.77 लाख करोड़ और 216-17 में 9 लाख करोड़ ऋण बाँटने का लक्ष्य रखा है। यह ऋण कम से कम बयाज दर पर आवंटित करने का लक्ष्य रखा गया है …. यदि हम इस पर मोटे तौर पर औसतन 3 फीसदी के बयाज की भी गिने तो इस हिसाब से गणित कुछ यूं बनता है कि सरकार ने जो साढ़े आठ लाख का कर्ज बाँटा है वह तीन फीसदी यानी करीब करीब 20 हज़ार करोड़ रुपये कमा कर वापस आयेगा। यानी सरकार कर्ज बाँटने से कमाई ही कर रही है।

कृषि ऋण से बड़ी कंपनियों को होता है फायदा

अब इस बात पर भी गौर करना होगा कि यह कर्ज असल में खर्च कहां हो रहा है …. खेती किसानी में खाद, बीज, कीटनाशक आदि के लिए बड़ा कर्ज नहीं लिया जाता है, बल्कि बड़ा कर्ज ट्रैक्टर, थ्रेशर, हार्वेस्टर, प्लाऊ कल्टीवेटर या सिंचाई सिस्टम लगवाने आदि बड़े कृषि उपकरणों की खरीदी के लिए लिये जा रहे हैं। जिसका पैसा अंत में किसी बड़ी कॉरपोरेट कम्पनी के पास पंहुच जाता है। यह कम्पनियाँ तो दिनों दिन विकास कर रही हैं लेकिन दूसरी ओर हमारा किसान कम्पनियों के व्यापारिक मकड़जाल में फंसकर आत्महत्या कर रहा है।

आज कृषि बीमा और कृषि उपकरणों के निर्माण में बड़े कॉरपोरेट घराने लगे हुए हैं जिनका धंधा उसी समय तक चलेगा जब तक कि कृषि ऋण इसी प्रकार आसानी से मिलता रहेगा। दूसरी ओर वर्तमान सरकार इन्हीं कॉरपोरेट घरानों के हाथों की कठपुतली बनी हुई है ऐसे में वह कृषि संकट के नाम पर ऐसे लोन बाँटने का काम जारी रख रही है।

फसलों पर दिये जाने वाली न्यूनतम समर्थन मूल्य घटायी जा सकती है

किसानी की दूसरी समस्या है कृषि उपज का उचित मूल्य ना मिलना ….. सरकारी आंकड़े बतातें हैं कि सरकार के गोदाम आनाज से भरे पड़े हैं तथा सरकार बाजार आसंतुलित ना हो जाए इस डर से गोदाम खाली नहीं कर रही है …. ऐसे में सरकार अब अपनी पीडीएस आवश्यक्ताओं और बफर स्टॉक को ध्यान में रखते हुए एक संतुलित खरीदी नीति पर काम कर रही है, इसे आसान शब्दों में कहें तो न्यूनतम समर्थन मूल्य पर खरीदी अब इस संतुलन के नाम पर कम हो सकती है और बड़े पैमाने पर हमारे किसान बजार के भरोसे छोड़ दिये जाएँगे जो उन्हें अपनी उपज का औना पौना दाम देंगे ।

मध्य प्रदेश की फ्लॉप भावांतर योजना को पूरे देश में लागू करना चाहती है सरकार

हाल ही में केंद्र सरकार ने किसानों को कृषि उपज का उचित मूल्य दिलवाने के लिए नई नीति बनाई हैं। यह योजना मध्यप्रदेश की भावांतर योजना से मिलती जुलती है । भावातंर योजना मध्यप्रदेश में पहले ही फ्लॉप हो चुकी है और अब केंद्र ऐसी ही योजना को पूरे देश में लागू करने पर काम कर रही है। यह कहां कि अक्लमंदी है।

किसानों की वास्तविक आय पिछले 4 साल में 2 प्रतिशत भी नहीं बढ़ी है

मोदी सरकार अपने चुनावी घोषणा पत्र में किसानों से किए सभी बड़े वायदों से मुकर गई है। वादा यह था कि ‘‘कृषि वृद्धि और किसान की आय में बढ़ौतरी को सर्वोच्च प्राथमिकता दी जाएगी।’’ सरकारी डायलॉग में तो बहुत वृद्धि हुई है लेकिन सरकार के अपने ही आंकड़े देखें तो पिछले 4 साल में कृषि क्षेत्र में वृद्धि की दर घट गई है। अगर इसके लिए 2 साल पड़े सूखे को भी जिम्मेदार न मानें तो भी किसानों की वास्तविक आय पिछले 4 साल में 2 प्रतिशत भी नहीं बढ़ी है और दावा 6 साल में 100 प्रतिशत बढ़ाने का है।

मोदी सरकार ने रोजगार गारंटी योजना का गला घोंटने का हरसंभव प्रयास किया

यह सरकार पहले 2 साल में पड़े देशव्यापी सूखे के दौरान लापरवाही और अकर्मण्यता की दोषी है। कागज पर किसान को मुआवजे की दर बढ़ाने और खराबी की सीमा बदलने के सिवा 2 साल तक सरकार ने सूखा नियंत्रण के लिए जरूरी कदम नहीं उठाए। ऊपर से बहाने भी बनाए कि सूखा राहत तो उसकी जिम्मेदारी नहीं और उसके पास पैसा नहीं है। सुप्रीम कोर्ट को बार-बार केंद्र सरकार की लापरवाही पर टिप्पणी करनी पड़ी। मोदी सरकार ने रोजगार गारंटी योजना का गला घोंटने का हरसंभव प्रयास किया। जब इस योजना को बंद करने की साजिश कामयाब नहीं हुई तब इसके फंड रोकने और समय पर वेतन का भुगतान और मुआवजा न देने के जरिए इस योजना का बंटाधार किया गया, जिससे छोटे किसान और खेतिहर मजदूर की स्थिति पहले से भी कमजोर हुई है।

सरकार की आयात-निर्यात नीतियों के जरिए भी किसानों को धक्का पहुँचाया गया

चाहे 2014 में आलू निर्यात पर न्यूनतम निर्यात मूल्य की सीमा या फिर इस साल गन्ने की बंपर पैदावार के बावजूद पाकिस्तान से चीनी का आयात हो, इस सरकार ने आयात-निर्यात नीति से किसान को नुक्सान ही पहुँचाया है। नतीजा साफ है, 2013-14 में कृषि उपज का निर्यात 4300 करोड़ डॉलर से घटकर 2016-17 में 3300 करोड़ डॉलर पर आ पहुँचा। उधर अरहर,चना, गेहूँ, चीनी और दूध पाऊडर जैसी वस्तुओं के आयात से किसान की फसलों का दाम गिर गया।

नोटबंदी से किसानों को हुआ नुकसान

नोटबंदी की तुगलकी योजना ने तो किसान की कमर ही तोड़ दी। मुश्किल से 2 साल के सूखे से उबर रहा किसान जब पहली अच्छी फसल को बेचने बाजार पहुँचा तो कैश खत्म हो गया था, मांग गिर चुकी थी, भाव टूट गए थे। फल-सब्जी का किसान तो आज भी उस कृत्रिम मंदी के असर से उबर नहीं पाया है।

पशुधन की अर्थव्यवस्था की कड़ी को तोड़ दिया है

गौ हत्या रोकने के नाम पर पशुधन के व्यापार पर लगी पाबंदियों और जहाँ-तहाँ गौ तस्करों को पकडऩे के नाम पर चल रही हिंसा ने पशुधन की अर्थव्यवस्था की कड़ी को तोड़ दिया है। एक ओर तो किसान की आमदनी को धक्का लगा है दूसरी तरफ खेतों में आवारा पशुओं की समस्या भयंकर रूप ले रही है।

आदिवासी किसान के अधिकारों को कम किया है

इस सरकार की पर्यावरण नीति ने आदिवासी किसान की बर्बादी का रास्ता साफ कर दिया है। वन अधिकार कानून में आदिवासी किसान के अधिकारों को बहुत घटा दिया गया है। जंगल और पर्यावरण के बाकी कानूनों में भी ऐसे बदलाव किए गए हैं जिनसे आदिवासी समाज की जल-जंगल और जमीन पर उद्योगों और कंपनियों का कब्जा आसान हो जाए।

भूमि अधिग्रहण कानून का लाभ किसानों को नहीं दिया गया

किसान को कुछ देना तो दूर, मोदी सरकार ने किसान की अंतिम और सबसे बहुमूल्य संपत्ति छीनने की पूरी कोशिश की है। सन् 2013 में सभी पार्टियों की सहमति से बने नए भूमि अधिग्रहण कानून को अपने अध्यादेश के जरिए खत्म करने की मोदी सरकार ने चार बार कोशिशें कीं। कोशिश नाकाम होने के बावजूद मोदी सरकार की एजैंसियों ने भूमि अधिग्रहण में 2013 के कानून का फायदा किसान को न देने की पूरी व्यवस्था कर ली। अपनी राज्य सरकारों के जरिए इस कानून में ऐसे छेद करवाए गए जिनसे किसान को भूमि अधिग्रहण में अपना जायज हिस्सा न मिल सके।

रिजवान रजा (नई दिल्ली)

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Last updated: मार्च 13th, 2019 by Central Desk - Monday Morning News Network