मेरी बात,, समाज की सामाजिक परिभाषा,, एक कहावत अक्सर बोली जाती हैँ और आपसब लोग भी इस कहावत को अवश्य सुने होंगे कि मनुष्य एक सामाजिक प्राणी हैँ किन्तु समाज की कल्पना मात्र से ही समाज का गठन नहीं होता हैँ इसकी मूल परिभाषा में एक मनुष्य का दूसरे मनुष्य के प्रति इच्छीत मिलाप को भी हम एक समाज की संज्ञा दे सकते हैँ जीवन की परिकल्पना में भी ऐसा अक्सर देखने को मिलता हैँ कि एक मनुष्य को अपनी मनुष्यता को कभी भी ख़त्म नहीं करनी चाहिए अन्यथा वो इंसान सदैव ही इस समाज रूपी स्तम्भ से कटा हुआ रहता हैँ समाज का एक वर्ग सदा ही समाज के साथ कदम से कदम मिलाकर चलने की कोशिश करता हैँ वहीँ कई मामले में एक इंसान को अपनी इंसानियत को लेकर हमेशा ही उत्साह पूर्वक रहना चाहिए समाज को परिभाषित करने के लिए एक इंसान का हर वो रूप जिसमें की उस इंसान का व्यक्तित्व का खंडन होता हो और जिसकी कल्पना मात्र से ही समाज एक नए अध्याय की ऒर अग्रसर हो जाता हैँ किन्तु समाज का आज एक वर्ग ऐसा भी हैँ जो की कहता कुछ हैँ और करता कुछ हैँ खैर वे भी समाज के ही अंग हैँ किन्तु एक विडंबना यह भी हैँ कि एक इंसान का प्रयास हमेंशा यह होना चाहिए कि उसके द्वारा किए गए कार्य से समाज के किसी भी व्यक्ति का दिल ना दुःखी हो साफ साफ भाषा में अगर यह कहा जाए कि इंसान को अपने जज़्बात को सदैव ही काबू में रखकर कार्य करते रहना चाहिए किन्तु वास्तविकता और सच्चाई कुछ और ही हैँ इस समाज के सामाजिक प्राणी को उस व्यक्ति विशेष पर अवश्य ध्यान देना चाहिए जो की इस समाज के सबसे निचले पायदान से आते हैँ किन्तु किधर आज ये हो रहा हैँ और हमसब समाज बदलने की बड़ी बड़ी बातें करते हैँ खैर प्रयास ही जिंदगी हैँ और इस प्रयास का असर से यह समाज अवश्य सुधरेगा ऐसा मेरा मानना हैँ जबकि सामाजिक जीवन के साथ आपका जीवन तनावमुक्त के साथ साथ तनावयुक्त भी होना चाहिए क्योंकि दोनों शब्द का मूल मंत्र आपके जीवन के साथ साथ आपके द्वारा किए गए सामाजिक प्रयासों को दर्शाने का कार्य करता हैँ,वहीँ समाज का हर एक व्यक्ति का मूल उदेश्य सामाजिक हो ना की असामाजिक,,,,
लेखक सह पत्रकार,, अरुण कुमार,मंडे मॉर्निंग न्यूज़ नेटवर्क
शाखा प्रबंधक,, भागवत ग्रुप कारपोरेशन,, धनबाद