Site icon Monday Morning News Network

मानवाधिकार समाजसेवा और विकास

होली विशेषांक 1 मार्च 2018 को प्रकाशित व्यंगात्मक कटाक्ष

Disclaimer जो संगठन निष्ठा से मानव सेवा में लगे हैं उनको मेरी ओर से साधुवाद है लेकिन साथ ही छद्म समाजसेवियों पर प्रहार भी जरूरी है। मैं कहानियाँ लिखता नहीं । बस यूं ही मन  के उद्गार हैं जो शब्दों के साथ बाहर छलक आये हैं। यह कहानी एवं इस कहानी में सभी पात्र काल्पनिक हैं जो तस्वीरें दी गयी है वह भी मात्र सांकेतिक है इसका इस कहानी से कोई भी संबंध नहीं है। कहानी का मूल उद्देश्य आम जनता को जागरूक करना और उन्हें सही तथा गलत में फर्क समझाना है। -पंकज चन्द्रवंशी, प्रधान संपादक(मंडे माॅर्निंग)


 

यार ठनठन!
हाँ भाई गनगन!
‘‘मन नहीं लग रहा है यार, जिंदगी में कुछ मजा नहीं आ रहा है’’
‘‘सही कहे भाई ठनठन, वाकई जिंदगी में कुछ मजा नहीं आ रहा है, समाज में अपनी कोई इज्जत भी नहीं करता है । सब हमें निठल्ले ही समझते हैं’’
‘‘कुछ ऐसा करते हैं कि लोग हमें बहुत महान समझने लगे’’
‘‘सही कहा हमें कुछ ऐसा ही करना चाहिए’’
‘‘लेकिन आखिर करें क्या….?’’
‘‘सीमा पार कर दो-चार पाकिस्तानियों को भून डालते हैं’’
‘‘नहीं यार! उसमें बहुत खतरा है, कुछ आसान सा उपाय सोंचो’’
‘‘आसान उपाय…….आसान उपाय………कुछ सूझ नहीं रहा’’
‘‘हमें समाज सेवा करनी चाहिए’’
‘‘समाज सेवा मतलब ?’’
‘‘मतलब लोगों की मदद करनी चाहिए, उनके दुःख तकलीफों का निपटारा करना चाहिए इससे समाज में अपनी इज्जत बढ़ेगी और लोग हमें महान भी समझेंगे’’

‘‘हाँ ये ठीक रहेगा, लेकिन समाज सेवा करते कैसे हैं ? हमने आज तक समाज सेवा कभी की नहीं और फिर समाजसेवा करने के लिए पैसे भी तो चाहिए ़’’
‘‘अरे समाजसेवा करने में ज्यादा पैसे नहीं लगते हैं। दो-तीन हजार में एक संगठन बन जाता है’’
‘‘हाँ इतने पैसे तो हमलोग खर्च कर ही सकते हैं’’
‘‘ तो सुनो, अपने जितने भी दोस्त जो बेकार बैठे घूम रहे हैं, आज शाम सबको बुलाओ’’
शाम को ठनठन के कमरे में करीब 10-12 लोग जुटे। ठनठन ने कमरे का दरवाजा बंद किया।
‘‘देखो दोस्तों, हम सब बेरोजगार लोग हैं। सरकार कोई नौकरी दे नहीं रही है तो क्यों न कोई धंधा शुरू किया जाये’’
‘‘ लेकिन कोई धंधा करने के लिए तो पैसे चाहिए, वो तो हमारे पास नहीं है।’’-एक ने उठकर सवाल किया।
‘‘इसीलिए तो मैने तुम सब को यहाँ पर बुलाया है, सुनो एक ऐसा धंधा भी है जिसमें कोई पूंजी नहीं लगती है’’
‘‘वो क्या…’’
‘‘सामाजसेवा….’’

‘‘भला ये भी कोई धंधा हुआ। समाजसेवा तो बहुत पुण्य का काम है। इसमें तो लोग अपनी पूंजी लगाकर दूसरों की भलाई करते हैं’’-एक ने कहा।
‘‘अरे ये बहुत बड़ा धंधा है। मूर्ख हैं वो लोग अपनी पूंजी लगाकर दूसरों की भलाई करते हैं, हम तो दूसरों की पूँजी पर अपनी भलाई करेंगे।’’
सभी बहुत खुश हुए और टोकने वाले को डाँट कर बैठाया। ठनठन ने कहना शुरू किया।
‘‘हाँ तो दोस्तों आज यहाँ पर एक समाजसेवी संगठन एनजीओ का निर्माण करेंगे’’
‘‘सभी सहमत हैं’’
‘‘ हाँ-हाँ, हम सहमत हैं’’
‘‘तो सुनो हमारे एनजीओ का नाम होगा ‘गरीब सेवा एनजीओ’
‘‘भाई आजकल तो मानवाधिकार संगठन का बाजार गर्म है’’
‘‘तो ठीक है एक मानवाधिकार संगठन ही बना लेते हैं’’
‘‘ हाँ, राष्ट्रीय’’

‘‘नहीं-नहीं, राष्ट्रीय मानवाधिकार संगठन तो बहुत हैं, अंतर्राष्ट्रीय मानवाधिकार संगठन बनाते हैं’’
‘‘ अंतर्राष्ट्रीय भी तो बहुत संगठन हैं’’-किसी ने टोका।
‘‘अब अंतर्राष्ट्रीय से बड़ा क्या होगा ?’’ -ठनठन ने खीज कर कहा।
सभी सदस्यों ने फिर उस टोकने वाले को डाँट कर बैठाया।ठनठन ने कहना शुरू किया-
‘‘देखो भाई मानवाधिकार संगठन में सरकार ने नियम कानून कड़े कर दिये है। कुछ डिग्री धारक की आवश्यकता पड़ेगी, जो कि हममें से कोई नहीं है।जब तक हमें कोई डिग्रीधारक नहीं मिल जाता है तब तक एनजीओ से ही काम चलाते हैं। आमदनी से मतलब है चाहे जिससे भी आये’’
‘‘हाँ-हाँ ठीक कहा’’
‘‘तो फिर फाइनल रहा गरीब सेवा एनजीओ’
‘‘हाँ-हाँ, फाइनल’’

‘‘ ठीक है, मेरा एक दोस्त वकील है वो एनजीओ पंजीकरण की पूरी प्रक्रिया कर देगा। उसमें कुछ सामान्य खर्च है। यही कोई तो-तीन हजार रुपये।
सबने रुपये जमा किया करीब तीन महीने में उनके एनजीओ का पंजीकरण हो गया।फिर बैठक बुलाई गयी। सभी जुटे। सर्व सम्मति से ठनठन इस एनजीओ से अध्यक्ष चुने गये और गनगन उपाध्यक्ष। अब ठनठन ने बाकि सदस्यों को आमदनी का जरिया बताना शुरू किया।
‘‘सुनो अब तुम सभी अलग-अलग जगहों में फैल जाओ और नये-नये लोगों को इस एनजीओ से जोड़ो। सदस्यता शुल्क पन्द्रह सौ रुपये, ब्लाॅक अध्यक्ष तीन हजार और जिला अध्यक्ष पाँच हजार रुपये। जिसके द्वारा भी नये सदस्य जोड़े जायेंगे उसे तीस प्रतिशत कमीशन मिलेगा’’
‘‘लेकिन कोई हमारे एनजीओ की सदस्यता क्यों लेगा?’’ -एक ने उठकर सवाल किया
‘‘सही सवाल है, इसका भी हल है मेरे पास और उसमें करीब तीन हजार रुपये का खर्च आयेगा’’
सबने फिर रुपया इकटठा किया। दो-तीन झाड़ु, करीब बीस पैकेट बिस्कुट और तीस-चालीस एक रुपये वाला चाॅकलेट खरीद लाये । बमुश्किल दो सौ रुपये खर्च हुए होंगे।

अगले दिन साजो सामान लेकर पास के विद्यालय में पहुँचे, प्रधानाध्यापक को प्रणाम किया और उन्हें बताया कि वे लोग एनजीओ की तरफ से विद्यालय की सफाई के लिए आये हैं। और बच्चों में कुछ उपहार भी बाटेंगे। वैसे तो विद्यालय साफ ही था। प्रधानाध्यापक ने विद्यालय की अच्छी व्यवस्था कर रखी थी इलाके का प्रसिद्ध विद्यालय था वह। फिर भी एनजीओ के नाम से बहुत खुश हुए। सदस्यों ने झाड़ु उठायी और पहले से साफ आहाते में झाड़ु पकड़कर मोबाइल में फोटो खिंचवायी। फिर प्रधानाध्यापक की मदद से कुछ बच्चों को बुलाकर उनके चाॅकलेट और बिस्कुट बाँट दिये और सबके साथ फोटो खिंचवा ली। हाँ प्रधानाध्यापक के साथ फोटो खिंचवाना नहीं भूले।

वापस लौटे शाम को एक पार्टी दी। जिसमें इलाके के लगभग सभी पत्रकारों को बुलाया। इनके कुछ छुटभैये साप्ताहिक और मासिक अखबारों के पत्रकार थे जो कभी-कभी ही छपा करते थे। मांस और दारु का पूरा इंतजाम था। सभी ने छक कर खाया। जाते वक्त ठनठन से सभी को सौ-सौ रुपये भी हाथ में चुपके से पकड़ा दिया। सभी ने बिना उसे देखे चुपचाप जेब में डाल लिया।
अगली सुबह लगभग सभी अखबारों में तस्वीर के बड़ी-बड़ी खबर छपी कि ‘गरीब सेवा एनजीओ’ ने फलां विद्यालय में ‘स्वच्छ अभियान’ के तहत पूरे विद्यालय एवं आस-पास के इलाकों की सफाई कि एवं विद्यार्थियों को ढेर सारे उपहार दिये। कभी-कभी छपने वाले साप्ताहिक और मासिक अखबारों ने तो महिमा मंडन की सीमा ही लांघ दी एवं उन्हें इलाके का मसीहा तक बता दिया। साथ ही अखबार की कुछ प्रतियाँ भी ठनठन को थमा दी। ठनठन ने भी बड़े उत्साह से उन महिमा मंडित खबर वाले अखबारों को अपने मुहल्ले में बाँट दिया। उसकी फोटो लेकर सोशल मीडिया में भी खूब फैला दिया। खबर के असर से उसके मुहल्ले के कुछ युवाओं ने भी सदस्यता ले ली।

अब सिलसिला चल पड़ा। नये सदस्य आने से एनजीओ को जो आमदनी होती उसे फिर दूसरे काम में लगा देते मसलन कभी रेलवे स्टेशन में बिस्कुट बाँटते तो कभी किसी भिखारी को पकड़कर उसे कुछ खाने के लिए देकर उसके साथ फोटो खिंचवाते । कभी किसी पहले से लहलहाते बगीचे में जाकर दो-चार पौधे रोप देते। कभी दो-चार कंबल किसी गरीब को बाँट कर फोटो खींच लेते। शाम को पार्टी चलती और सुबह अखबारों में खूब खबरें छपती। अब तो पार्टी की भी जरूरत नहीं थी। व्हाट्सएप पर फोटो भेज देते और खबर छपने पर पैसे दे देते।
संगठन के सदस्यों को भी कमीशन की घुट्टी पिलायी जाती। वे भी पूरे मनोयोग से नये-नये सदस्यों को लाते।नये सदस्य बड़े शान से अपनी बाइक में ‘गरीब सेवा एनजीओ’ लिखवा देते और बिना हेलमेट के बाइक चलाते। स्थानीय पुलिस भी अब एनजीओ को तरजीह देने लगी। नये सदस्यों से लिए यही सबसे बड़ा फायदा था।

अब अच्छी खासी रकम जमा हो गयी थी। अब उनलोगों ने कुछ बड़ा करने का सोंचा।अब वे इलाके के थाना प्रभारी से लेकर छोटे-बड़े नेताओं को आॅफिस बुलाकर या उनके आॅफिस में जाकर उन्हें सम्मानित करने लगे। लागों की तस्वीरें अखबार में छपती वे खुश होते । इससे भी अच्छा खासा रकम जमा हो गया उनके पास।
कुछ मानवाधिकार डिग्रीधारक भी मिल गये और एक अंतर्राष्ट्रीय मानवाधिकार संस्था का गठन भी कर डाला। अब सदस्यता शुल्क की फीस भी दोगुनी कर दी। कोई आम आदमी अपनी परेशानी लेकर आता तो उसे नेता या वकील के पास भेज देते। इस प्रकार कभी बेरोजगार घूम रहे मुहल्ले के चंद लड़के अब समाजसेवक बन गये थे। उनके पास खुद की कार थी। बैंकों में रुपये थे। मंत्री-अधिकारी के साथ उठना-बैठना था। अब वे बेरोजगार नहीं थे। उनका विकास हो चुका था। आम लोगों का क्या ! वे तो पहले भी आम थे अब भी आम है। उनकी समस्या,परेशानी अब भी वहीं जिससे न किसी संस्था को कभी मतलब था और न है।

और हाँ एक और बात, किसी मतभेद के कारण गणगण कुछ साथियों को लेकर ठनठन से अलग हो गया एवं अपना एक अलग एनजीओ बना लिया है। अपने पैरों पर खड़ा होने की कोशिश में लगा है, बहुत ही जल्द वह भी एक ठनठन को टक्कर देने की स्थिति में हो जायेगा।

Last updated: मार्च 17th, 2018 by Pankaj Chandravancee