खैर व बरकत के साथ मुल्क की सलामती की दुआएं मांगी गयी
त्याग व बलिदान का पर्व ईद-उल-अजहा (बकरीद) शनिवार को पुरे विश्व में खुशियों के माहौल में मनाई गई.
मालूम हो कि हर साल दो ईद (ईद-उल-फितर और ईद-उल-जुहा) मनाई जाती है.
इस्लाम मजहब में ईद के त्योहार का बड़ा महत्व है
इस्लामिक कैलेंडर के अनुसार ईद-उल-जुहा 12वें महीने धू-अल-हिज्जा के दसवें दिन मनाई जाती है.
इस अवसर पर जामा मस्जिदों व ईदगाहों में जहां बकरीद की विशेष नमाज अदा की गई,
ईदगाह पर ईद की मुख्य नमाज सुबह आठ बजे पढ़ी गई.
इसके बाद ईद मुबारक और दावतों का दौर शुरू हुआ जो देर रात तक जारी रहा.
हजरत इब्राहिम व हजरत इस्माईल के बलिदान के इस त्यौहार पर शहर में सुबह से ही रौनक पूरे शबाब पर दिखी.
छोटे हों या बड़े सभी नये व साफ-सुथरे परिधानों में नजर आये.
तयशुदा वक्त में लोगों ने अपने नजदीक की जामा मस्जिद व ईदगाहों में जाकर बकरीद की नमाज पढ़ी,
इसके साथ ही खैर व बरकत के साथ मुल्क की सलामती की दुआएं मांगी.
नमाज के बाद लोगों ने एक-दूसरे के गले मिलकर त्यौहार की मुबारकबाद दी.
मस्जिद में लोगों ने अकीदत के साथ बकरीद की नमाज पढ़ी.
तीन दिनों तक चलेगी बकरीद की कुर्बानी
इसके बाद अल्लाह की राह में जानवरों की कुर्बानियों का सिलसिला शुरु हुआ, जो तीन दिनों तक चलता रहेगा.
इस दौरान ननि प्रशासन द्वारा नमाजियों को कोई परेशानी न हो इसको लेकर सफाई सहित पेय जल व्यवस्था का जहां मुकम्मल इंतजाम किया गया था वहीं त्योहार को शांतिपूर्ण सम्पन्न कराने के लिए जिला व पुलिस प्रशासन भी काफी सक्रिय रहा.
अपने सबसे प्रिय चीज की देनी होती है कुर्बानी
जानकारों के मुताबिक बकरीद के दिन अपनी किसी प्रिय चीज की अल्लाह के लिए कुर्बानी देनी होती है.
हालांकि अभी बकरे, भैंस या ऊंट की कुर्बानी देने का रिवाज है.
बकरीद के दिन मुस्लिम समुदाय के लोग बकरे की कुर्बानी देते हैं.
कुर्बानी के लिए बकरे को अपने घर में पाला-पोसा जाता है और उसका पूरा ख्याल रखा जाता है.
जिसके बाद बकरीद के दिन उसकी कुर्बानी अल्लाह के नाम पर दी जाती है.
कुर्बानी के गोश्त को तीन हिस्सों में बांटा जाता है.
एक हिस्सा कुर्बानी करने वाले खुद के घर में रख लेते हैं और दो हिस्सें बांट देते हैं.
कुर्बानी बकरीद की नमाज पढ़ने के बाद दी जाती है.
यह कुर्बानी तीन दिन तक दी जा सकती है.
क्या है कुर्बानी देने का असली मकसद ?
ईद-उल-अजहा (बकरीद) को ईद-उल-फितर (ईद) के 2 महीने 10 दिन के बाद मनाते हैं,
एक खास बात यह भी है कि इस्लाम धर्म में बकरीद या बकरा ईद जैसा कोई शब्द नहीं है.
यह नाम सिर्फ भारत में ही प्रचलित है, क्योंकि इस दिन ज्यादातर मुस्लिम बकरे की कुर्बानी देते हैं।
इसलिए इसे बकरा ईद कहा जाने लगा.
इस्लामिक के मुताबिक ईद-उल-अजहा के दिन अपनी किसी प्रिय चीज को खुदा के नाम पर कुर्बान किया जाना था.
जानवरों की ही कुर्बानी क्यों ?
क्योंकि सऊदी अरब में इस्लाम की शुरुआत के दौरान जानवर ही इंसान के जीवन-यापन का मुख्य जरिया था.
इसलिए पालतु जानवरों की कुर्बानी देने का परम्परा शुरू हुयी।
माना गया है कि किसी ऐबदार या बीमार जानवर की कुर्बानी कबूल नहीं होती है.
बकरीद के दिन जरूरतमंदों में कुर्बान किए गए जानवर का मीट वितरण किया जाता है।
चूंकि आर्थिक रूप से कमजोर व्यक्ति कुर्बानी देने में समर्थ नहीं होते हैं इसलिए उन्हें कुर्बानी के इस भाव में अपने साथ शामिल किया जाता है.
हजरत इब्राहिम को मिला था हुक्म अपनी सबसे प्रिय चीज की कुर्बानी करने का
इस्लामिक मान्याओं के मुताबिक हजरत इब्राहिम को अल्लाह ने हुक्म दिया था कि वह अपनी सबसे प्रिय चीज की कुर्बानी दें.
एक अन्य मान्यता है कि पैगंबर इब्राहिम ने सपने में देखा था कि खुदा उन्हें ऐसा करने का आदेश दे रहे हैं कि वह अपनी सबसे प्रिय चीज की कुर्बानी दें और सपने में देखी बात को ईश्वर का हुक्म मानकर पैगंबर अपने बेटे की कुर्बानी देने चले जाते हैं,इस पर खुदा बहुत खुश होते हैं और उनके बेटे की कुर्बानी न होकर भेड़ की कुर्बानी हो जाती है.
धार्मिक आस्था है कि ईश्वर ने ऐसा करके अपने दूत इब्राहिम की परीक्षा ले रहे थे, जिसमें इब्राहिम पास हो गए.
कमजोर और गरीब लोगों के लिए अपनी प्यारी और बहुमूल्य चीज तक की कुर्बानी ही है असली मकसद
दरअसल कुर्बानी के पीछे मकसद यह है कि लोग अपने समाज के कमजोर और गरीब लोगों के लिए अपनी प्यारी और बहुमूल्य चीज तक कुर्बान कर दें.
यह दूसरो की मदद के लिए प्रेरित करने का एक त्योहार है, वक्त के साथ त्योहारों की शक्ल भी बदलती चली गई.
लेकिन हमेशा की तरह आज भी इस त्योहार का असली मकसद आपसी प्यार और भाईचारे का संदेश देना है.
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