Site icon Monday Morning News Network

एक जिंदा इतिहास बन गया एकुश जुलाई (21 जुलाई)

धर्मतला चलो पर तृणमूल ने झोंकी ताकत

पश्चिम बंगाल में सत्ताधारी तृणमूल कांग्रेस द्वारा हर वर्ष 21 जुलाई को शहीद दिवस के रूप में मनाया जाता है।

साथ ही इस दिन को वाममोर्चा शासनकाल के अत्याचार के रूप में याद किया जाता है।

पश्चिम बंगाल में माकपा शासनकाल को विरोधियों ने विकासहीनता और अराजकता का शासन कहा

आपातकाल के खात्मे के साथ ही बंगाल में वाम सत्ता का उदय हुआ,

लेकिन सत्ता की सियासत में संघर्ष की एक ऊंची दीवार खड़ी हो गई.

सन 90 के दशक तक चिंगारी रूपी विरोध ने विशाल आकार लेना शुरू कर दिया था.

वाम पार्टियां पर अब आंदोलन रहित जोर जबर की सियासत के आरोप लगने लगे

चुनावों में धांधली की बराबर खबरें आ रही थी.

हरमद वाहिनी द्वारा चुनाव प्रभावित करने के भी आरोप लगे।

चुनावों में आए दिन हो रही धांधलियों के खिलाफ लोगों की आवाज अब बुलंद होनी शुरू हो गई थी.

लोगों को मताधिकार से वंचित किए जाने के आरोप लगने लगे।

ममता के नेतृत्व में मुखर होने लगा विरोध

सत्ताधारी पार्टी के खिलाफ सड़कों पर आए दिन जुलूस निकाले जाने लगे थे.

विरोधकर्ताओं की संख्या में लगातार इजाफा हो रहा था.

वहीं इस खेमे का प्रतिनिधित्व ममता बनर्जी कर रही थी.

कई बार तो उन्हें भी पुलिस की लाठी का शिकार होना पड़ा था.

1991 की विधानसभा चुनाव के बाद से तेज हो गया संघर्ष

वर्ष 1991 के विधानसभा चुनाव में वाममोर्चा को भारी जनादेश मिला

और विपक्षी पार्टियों की ओर से धोखाधड़ी का आरोप लगाया गया.

बंगीय सियासत के जानकार बताते हैं कि इस जीत के साथ ही विपक्ष का संघर्ष तेज होने लगा था.

सड़क पर जुलूस और प्रदर्शन हो रहे थे

और आखिरकार 21 जुलाई 1993 को ममता बनर्जी के नेतृत्व में कांग्रेस युवा मोर्चा की ओर से विरोध प्रदर्शन किया गया

उस समय ममता राज्य युवा कांग्रेस की अध्यक्ष थी और राज्य में वाम सत्ता स्थापित था.

प्रदर्शन में शामिल लोग फोटो पहचान पत्र की मांग कर रहे थे

और उनका मानना था कि यदि फोटो पहचान पत्र के जरिए मतदान होगा

तो निष्पक्षता सुनिश्चित होगी.

सुबह के 11 बजे होंगे शायद और रैली में शामिल लोगों की भीड़ आगे बढ़ रही थी

तभी सचिवालय से एक किलोमीटर दूर एस्प्लेनेड मेट्रो सिनेमा के पास मेयो रोड और डारिना रोड क्रासिंग पर पुलिस ने हस्तक्षेप किया.

लेकिन उफानी भीड़ रूकने को तैयार नहीं थी

और इतने में पुलिस की ओर से गोलियां चलनी शुरू हो गई.

जिसका नतीजा यह हुआ कि

मौके पर ही 13 लोगों ने दम तोड़ दिया

और सैकड़ों की तादाद में लोग जख्मी हुए.

कलकत्ता शहर के तत्कालीन पुलिस आयुक्त तुषार तालुकदार के अनुसार विरोध की सम्भावनाओं को देखते हुए

उन्होंने राइटर्स बिल्डिंग और राज भवन के आस-पास भारी संख्या में पुलिस बलों को तैनात कर रखा था.

सीआरपीसी की धारा 144 के तहत एक निषेधाज्ञा मेयो रोड क्रॉसिंग से आगे लागू कर दिया गया था.

अलग-अलग कर तीन जगहों से रैली निकली थी

ममता बनर्जी के नेतृत्व में आ रही रैली के लोग टी-बोर्ड के पास एकदम से उग्र होने लगे थे.

जबकि मेयो रोड के पास एक अन्य समूह कथित तौर पर नियंत्रण से बाहर हो गया था.

बाध्य होकर पुलिस को गोली चलानी पड़ी.

पुलिस आयुक्त तुषार तालुकदार अनजान थे गोलीबारी से

पत्रकारों के सवालों का जवाब नहीं दे पाये

घटना के बाद मीडिया से मुखातिब हुए तालुकदार ने दावा किया था कि

वह गोलीबारी से अनजान थे.

जब पत्रकारों ने उनसे सवाल किया कि कैसे एक जूनियर अधिकारी गोलीबारी का आदेश दे सकता है

और पुलिस ने क्यों तय मानदंडों का उल्लंघन किया तो जवाब में उन्होंने महज यह कह कर चुप्पी साध ली थी कि

पूछताछ कर कार्यवाही होगी.

लेकिन सवाल उठता है कि उग्र स्थिति में यदि गोली चलाने की नौबत आई तो क्यों सीने में गोली दागी गई पैरों में भी तो मारी जा सकती थी.

उक्त घटना के बाद कलकत्ता पहुंचे उस समय के केंद्रीय गृह मंत्री एस.बी.चव्हाण ने राज्य सरकार को इस पूरे घटनाक्रम की न्यायिक जांच करने का आदेश दिया था.

लेकिन मुख्यमंत्री ज्योति बसु ने किसी भी जांच का आदेश नहीं दिया.

इतना ही नहीं उन्होंने पुलिस के कार्यों का समर्थन करते हुए कहा था कि

राइटर्स बिल्डिंग के घेराबंदी के प्रयासों को रोकने में पुलिस ने अच्छा काम किया है.

हालांकि बाद में एक कार्यकारी जांच की गई थी.

कंवलजीत सिंह, राइटर्स बिल्डिंग के संयुक्त प्रभारी सीपी डारिना क्रॉसिंग की घटना की जांच कर रहे थे,

जबकि डी.सी वाजपेयी ने मेयो रोड की घटनाओं की जांच की.

इक्कीस साल बाद इन अधिकारियों ने जांच आयोग को बताया कि

कलकत्ता पुलिस मुख्यालय लालबाजार और राइटर्स बिल्डिंग से फाइलें गुम हो गई है.

एक तरफ वाम सरकार इस मामले को दबा रही थी वहीं दूसरी तरफ इस गोलीकांड के बाद ममता बनर्जी बंगाल की दुर्गा बन कर उभरी थी.

तृणमूल कांग्रेस का हुआ जन्म

गोलीकांड में ममता भी बुरी तरह से जख्मी हुई थी

उनके साथ लोगों की सहानुभूति बढ़ती जा रही थी.

लेकिन शायद ममता को लग रहा था कि कांग्रेस में रहकर वो वाम को उखाड़ नहीं सकती है

साल 1997 में ममता ने किन्हीं वजहों से कांग्रेस छोड़ कर खुद की पार्टी बनाई,जिसका नाम तृणमूल कांग्रेस रखा गया.

देखते ही देखते दीदी बंगाल के युवाओं के बीच लोकप्रिय हो गई.

उनके साथ विशाल युवा वर्ग आ जुड़ा और दीदी विपक्ष की दमदार नेत्री बन गई.

फिर आया परिवर्तन का वह साल

आखिरकार वर्ष 2011में ममता के नेतृत्व में तृणमूल कांग्रेस ने

34 वर्षो की  सत्ता को पछाड़ते हुए भारी मतों से जीत दर्ज करते हुए बंगाल की सत्ता पर कब्जा कर लिया.

बंगाल की सत्ता संभालने के बाद हर वर्ष 21जुलाई को तृणमूल कांग्रेस की ओर से कोलकाता के धरमतला में

शहीद दिवस रैली का आयोजन किया जाने लगा जो आज भी परस्पर जारी है.

ममता बनर्जी ने दिये जांच के आदेश

उल्लेखनीय है कि ममता बनर्जी 2011 में मुख्यमंत्री बनने के बाद मई 2011 को

21 जुलाई 1993 के पुलिस फायरिंग की जांच के लिए उड़ीसा उच्च न्यायालय के

पूर्व मुख्य न्यायाधीश सुशांतो चट्टोपाध्याय की अध्यक्षता में एक न्यायिक आयोग का गठन किया.

अधिकांश नेताओं ने आयोग के सामने बयान दिए.

जिसमें माकपा के राज्य प्रमुख बिमान बोस और पूर्व मुख्यमंत्री बुद्धदेव भट्टाचार्य भी शामिल थे.

पूर्व मुख्यमंत्री बुद्धदेव भट्टाचार्य  ने गोलीकांड का समर्थन किया और वे अपने बयान पर अब भी कायम हैं

बुद्धदेव घटना के दौरान ज्योति बसु सरकार में सूचना एवं सांस्कृतिक मामलों के मंत्री तथा

कोलकाता पुलिस के प्रभारी थे।

वहीं 26 फरवरी 2014 को अपने 50 मिनट के बयान में भट्टाचार्य ने गोलीबारी को उचित ठहराया था और

कहा था कि उस समय सिद्धांन्तिक रूप से मुझे न्यायिक जांच की आवश्यकता महसूस नहीं हुई थी एवं

मैं अब भी अपने उस फैसले पर कायम हूं.

हुयी पुलिस अधिकारियों की पेशी

फरवरी 2014 में पांच पूर्व पुलिस अधिकारियों को पैनल के सामने दो बार पेश होना पड़ा.

इसमें तुषार तालुकदार (तत्कालीन पुलिस आयुक्त), डी.सी. वाजपेयी (तत्कालीन अतिरिक्त पुलिस आयुक्त),

आर. के. जोहरी (पूर्व संयुक्त पुलिस आयुक्त), एन.के. सिंह (पूर्व डीसी-दक्षिण) और कंवलजीत सिंह (राइटर्स के प्रभारी तत्कालीन संयुक्त सीपी) शामिल थे.

तत्कालीन गृह सचिव ने कहा कि वे गोलीबारी के खिलाफ थे

वर्ष 1993 में गृह सचिव रहे मनीष गुप्ता जो बाद में सत्तारूढ़ राज्य मंत्रिमंडल में मंत्री हो गए थे

ने कहा कि वह पुलिस गोलीबारी के खिलाफ थे.

जांच दल ने सौंपी रिपोर्ट : जलियाँवाला बाग से भी वीभत्स था 21 जुलाई 1993 का गोलीकांड

इसके बाद पैनल ने 350 गवाहों को सुना और दिसंबर 2014 में अपनी रिपोर्ट सौंपी

गोलीकांड के पीड़ितों को मिला मुआवजा

सभी पीड़ित निम्न-मध्यम वर्ग के परिवार से थे और उनका कोई आपराधिक रिकॉर्ड नहीं था

इसी को देखते हुए आगे चलकर आयोग ने मृतकों के परिजनों को 25-25 लाख और

घायलों को 5-5 लाख रुपए के मुआवजे का निर्देश दिया.

……और इस जिंदा इतिहास बन गया 21 जुलाई

21 जुलाई को धर्मतला चलो के आह्वान पर बेनचीती(दुर्गापुर) में रैली करते हुये पंचायत मंत्री अरूप विश्वास, विधायक सह आसनसोल नगरनिगम के मेयर जितेंद्र तिवारी एवं सैकड़ों कार्यकर्ता

गौरतलब है कि मुख्यमंत्री व तृणमूल कांग्रेस सुप्रीमो ममता बनर्जी पिछले23 सालों से 21 जुलाई को शहीद दिवस के रूप में मनाती आ रही हैं,

जिसमें राज्य के सभी जिलों से हजारों की संख्या में लोग शामिल होते हैं और

इस दिन ममता दीदी पीड़ित परिवारों को आर्थिक मदद भी देती है.

इसे एक तरह से तृणमूल का शक्ति प्रदर्शन के रूप में देखा जाता है.

प्रजातांत्रिक अधिकारों की रक्षा के लिए 21 जुलाई 1993 को 13 कांग्रेस कर्मी शहीद हुए थे

जिसमे श्रीकांत शर्मा, दिलीप दास,बंधन दास, असीम दास, मुरारी चक्रवर्ती, केशव बैरागी,

विश्वरनाथ राय, कल्याण बनर्जी, प्रदीप राय,रतन मंडल, रनजीत दास, अब्दुल खालिद है

और भी कई मायनों से ऐतिहासिक है 21 जुलाई

यदि 21जुलाई के इतिहास पर नजर डालें तो कई ऐसी घटनाएं हुई हैं जिन्हें नजरंदाज नहीं किया जा सकता है.

लेकिन इन सारी घटनाक्रमों से ज्यादा महत्वपूर्ण है साल 1993 का 21 जुलाई,क्योंकि

इस दिन कोलकाता पुलिस की गोलियों की बौछार ने 13 लोगों की जान ले ली थी.

यह दिन बंगाल व देश के इतिहास में काले दिन के रूप में अंकित हो गया और

शहीदों के सम्मान में ममता बनर्जी की 21 जुलाई की महारैली एक परम्परा सी बन गई.

 

– जहांगीर आलम (सदस्य, संपादकीय सलाहकार समिति, मंडे मॉर्निंग )

Last updated: सितम्बर 4th, 2017 by Pankaj Chandravancee